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साधारण नामकर्म
जिस कर्म के उदय से जीव को पृथक् शरीर न मिलकर अनेक जीवों को एक ही शरीर मिले, उसे साधारण नामकर्म कहते हैं। स्थिर-अस्थिर नामकर्म
वर्तमान में स्थिर नामकर्म के उदय से हड्डी, दाँत आदि स्थिर अवयव प्राप्त होना और अस्थिर नामकर्म के उदय से जिह्वा, रक्त-संचरण आदि अस्थिर अवयव प्राप्त होना माना जाता है, परन्तु ऐसा मानने से प्रथम तो अन्तराल गति में औदारिक, वैक्रिय शरीर व इनके अवयव- अंगोपांग होते ही नहीं है, वहाँ स्थिर-अस्थिर का उदय मानने में आपत्ति आयेगी। वहाँ केवल तैजस और कार्मण शरीर का उदय है। अतः इनके अर्थ तैजस व कार्मण शरीर से संबंधित स्थिरता-अस्थिरता से भी होने चाहिए।
द्वितीय बात यह है कि अस्थिर नाम कर्म पाप प्रकृति है, अत: इस अर्थ के अनुसार अस्थिर जिह्वा की प्राप्ति व क्रिया को पापकार्य का उदय और स्थिर दांत की प्राप्ति को पुण्यकर्म का उदय मानना होगा जो भूल होगी, कारण कि दांत की प्राप्ति को पुण्य कर्म का और जीभ की प्राप्ति को पापकर्म का उदय मानना उचित नहीं है। अतः शारीरिक पुद्गलों का यथावत् रहना 'स्थिर' और उनका च्युत हो जाना 'अस्थिर' नामकर्म अर्थ उपयुक्त लगता है।
अथवा
शरीर के अंगोपांग व अवयवों की जहाँ पर जैसी बनावट है उसमें पुद्गलों का परिवर्तन बराबर होते रहने पर भी उसकी बनावट ज्यों की त्यों स्थिर रहना तथा वात, पित्त, कफ आदि का चलायमान न होना, कुपित न होना आदि स्थिर नामकर्म है। यह शरीर की स्वस्थता का द्योतक है। इसे ही स्थिर नामकर्म कहा जा सकता है।
इसी प्रकार शरीर के अंगोपांग व अवयवों का चलायमान होना, जैसे अंडकोश का उतर जाना, वात, पित्त, कफ का कुपित हो जाना, नाक की हड्डी का बढ़ जाना, आँख की पलक में बाल उग आना आदि अस्थिर नामकर्म है। यह शरीर की अस्वस्थता का द्योतक है। इसे ही अस्थिर नामकर्म कहा जा सकता है। शुभ-अशुभ नामकर्म
वर्तमान में शुभ नामकर्म के उदय से नाभि के ऊपर के अवयव प्रशस्त होना माना जाता है और नाभि के नीचे के अवयव अप्रशस्त होने से उनको अशुभ माना
बंध तत्त्व
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