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भी अन्दर की विकारयुक्त वायु ही है, जिसमें कार्बन-डाई- आक्साइड मिला हुआ है। जो शरीर के लिए हानिकारक होता है। शरीर में इन हानिकारक पदार्थों का उत्पन्न होना ही उपघात प्रकृति है।
तात्पर्य यह है कि शरीर में निरन्तर हानि पहँचाने वाले अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न होते ही रहते हैं तथा शरीर उन्हें श्वास आदि के द्वारा बाहर निकालने का कार्य करता ही रहता है। एक क्षण भी ऐसा नहीं जाता है कि जिसमें विकार उत्पन्न न होते हों। शरीर में विकार उत्पन्न होने की यह प्रक्रिया शरीर के धारण करने के साथ चालू हो जाती है। इसीलिए कर्म-सिद्धान्त में शरीर पर्याप्ति के साथ ही उपघात प्रकृति का उदय माना है।
जिन जीवों की पराघात प्रकृति कमजोर होती है उनके शरीर पर बाहर से आक्रमण करने वाले क्षय, हैजे आदि के कीटाणु विजयी हो जाते हैं और थोड़े से समय में ही वे अपनी संतति बढ़ाकर लाखों-करोड़ों की संख्या में हो जाते हैं और वह प्राणी क्षय रोग व हैजे आदि से पीडित हो जाता है। चिकित्सक पुनः उनकी उन कीटाणुओं पर विजय प्राप्त करने की शक्ति को बढ़ाने के लिए औषधियाँ देते हैं और औषधियों से जब पराघात प्रकृति की शक्ति बढ़ जाती है तब वह रोग के कीटाणुओं को युद्ध में हराकर उनका नाश कर देती है। तब प्राणी पुनः रोग मुक्त हो जाता है। नगर में हैजे आदि का रोग फैलने पर एक ही वातावरण व एक ही घर में रहने पर भी कुछ व्यक्ति रोग ग्रस्त नहीं होते हैं और कुछ व्यक्ति रोग ग्रस्त हो जाते हैं। इसका भी कारण यही है कि जिनके शरीर में ऐसे तत्त्व विपुल मात्रा में विद्यमान हैं, जो रोग के कीटाणु पर आक्रमण करके उनका नाश करने में समर्थ हैं, तो वह व्यक्ति उस रोग से बच जाता है। परन्तु जिस व्यक्ति में रोग के कीटाणुओं पर विजय पाने वाले तत्त्वों की कमी हो वह उस रोग से ग्रस्त हो जाता है। कर्म-सिद्धान्त की भाषा में यह कहा जा सकता है कि सबल पराघात प्रकृति वाला व्यक्ति संक्रामक रोगों से बच जाता है और निर्बल पराघात प्रकृति वाला व्यक्ति संक्रामक रोग से आक्रांत हो जाता है। श्वासोच्छास नामकर्म
नामकर्म की प्रकृतियों में 'श्वासोच्छ्वास नाम कर्म प्रकृति' जीव विपाकी प्रकृति है। कारण कि इस क्रिया का सम्बन्ध जीवन से है, न कि पुद्गलों से। श्वास छोड़ने में जो वायु बाहर निकलती है वह विकृत होती है और उसका विकृत होना
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जैनतत्त्व सार