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________________ गया। फिर श्रेणीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होने लगी तो भावों में अत्यन्त विशुद्धि आई। कषायों का उपशमन हुआ तो अनुत्तर विमान देवगति का बंध होने लगा। फिर भावों की विशेष विशुद्धि से पाप कर्मों का स्थिति घात और रसघात हुआ। कर्मों की तीव्र उदीरणा हुई। फिर क्षीण कषाय होने पर पूर्ण वीतरागता आ गई ओर केवलज्ञान हो गया। इस प्रकार प्रसन्नचन्द्र राजर्षि अपनी वर्तमान भावना की विशुद्धि व साधना के बल से पूर्व बंद्ध कर्मों का उत्कर्षण, संक्रमण, उदीरण आदि करण (क्रियाएँ) कर कृतकृत्य हुए। इस प्रकार कर्म सिद्धान्तानुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्व जीवन में दुष्प्रवृत्तियों से अशुभ व दुःखद पाप कर्मों की बंधी हुई उसकी स्थिति व अनुभाग को वर्तमान में अपनी शुभ प्रवृत्तियों से शुभकर्म बांधकर घटा सकता है तथा शुभ व सुखद पुण्य कर्मों में संक्रमित कर सकता है। इसके विपरीत वह वर्तमान में अपनी दुष्प्रवृत्तियों से अशुभ पाप कर्मों का बंधन कर पूर्व से बांधे शुभ व सुखद कर्मों को अशुभ व दुःखद कर्मों के रूप में भी संक्रमित कर सकता है। अतः यह आवश्यक नहीं है कि पूर्व में बंधे हुए कर्म उसी प्रकार भोगने पड़ें। व्यक्ति अपने वर्तमान कमों (प्रकृतियों) के द्वारा पूर्व में बंधे कर्मों को बदलने, स्थिति, अनुभाग घटाने-बढ़ाने एवं क्षय करने में पूर्ण समर्थ व स्वाधीन है। इस सिद्धान्त के अनुसार साधक वर्तमान में जितना-जितना विवेक पूर्वक कषाय या राग घटाता जायेगा उसके उतने ही उतने पूर्व संचित कर्म या संस्कार स्वतः निःसत्त्व, निर्बल, निर्बलतर होते जायेंगे और जैसे ही वह राग का पूर्ण क्षय कर वीतराग भाव को प्राप्त होगा, उसके घाती (हानिकारक) कर्मों का पूर्ण क्षय हो जायेगा। इस प्रकार साधक वर्तमान में अपने पराक्रम पुरुषार्थ द्वारा प्रथम गुणस्थान से ऊपर उठता हुआ, घोर घाती कमों (दुष्कों ) का क्षय करता हुआ अंतर्मुहूर्त (कुछ ही मिनटों में) में केवलज्ञान प्राप्त कर अजर, अमर, अविनाशी, अक्षय शाश्वत सुख पा सकता है। तात्पर्य यह है कि भूतकाल किसी का भी निर्दोष नहीं है। यदि उसमें राग का दोष न होता तो जन्म ही नहीं होता। परन्तु व्यक्ति अपने पुरुषार्थ द्वारा वर्तमान को निर्दोष बनाकर सुख-दुःख के बंधन से मुक्त हो निरामय (दु:खरहित), अक्षय, अव्याबाध, परमानन्द को सदा के लिए प्राप्त कर सकता है। ऐसा करने में मानव मात्र समर्थ एवं स्वाधीन है। फिर भी निराश होकर वैसा न करना घोर प्रमाद है, भयंकर [172] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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