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________________ प्रसन्नचन्द्र राजा थे। वे संसार को असार समझकर राजपाट और गृहस्थाश्रम का त्याग कर साधु बन गये थे। वे एक दिन साधुवेश में ध्यान की मुद्रा में खड़े थे। उस समय श्रेणिक राजा भगवान् महावीर के दर्शनार्थ जाते हुए उधर से निकला। उसने राजर्षि को ध्यान मुद्रा में देखा। श्रेणिक ने भगवान के दर्शन कर भगवान से पूछा कि ध्यानस्थ राजर्षि प्रसन्नचन्द्र इस समय काल करें तो कहाँ जायें? भगवान् ने फरमाया कि सातवीं नरक में जायें। कुछ देर बार फिर पूछा तो भगवान् ने फरमाया- छठी नरक में जावें। इस प्रकार श्रेणिक राजा द्वारा बार-बार पूछने पर भगवान् ने उसी क्रम से फरमाया कि छठी नरक से पांचवी नरक में, चौथी नरक में, तीसरी नरक में, दूसरी नरक में, पहली नरक में जावें। फिर फरमाया प्रथम देवलोक में, दूसरे देवलोक में, क्रमशः बारहवें देवलोक में, नव ग्रैवेयक में, अनुत्तर विमान में जावें। इतने में ही राजर्षि को केवलज्ञान हो गया। हुआ यह था कि जहाँ राजर्षि प्रसन्नचन्द्र ध्यानस्थ खड़े थे। उधर से कुछ पथिक निकले। उन्होंने राजर्षि की ओर संकेत कर कहा कि अपने पुत्र को राज्य का भार संभला कर यह राजा तो साधु बन गया ओर यहाँ ध्यान में खड़ा है। परन्तु शत्रु ने इसके राज्य पर आक्रमण कर दिया है। वहाँ भयंकर संग्राम हो रहा है, प्रजा पीडित हो रही है। पुत्र परेशान हो रहा है। इसे कुछ विचार ही नहीं है। यह सुनते ही राजर्षि को रोष व जोश आया। होशहवाश खो गया। उसके मन में भयंकर उद्वेग उठा। मैं अभी युद्ध में जाऊँगा और शत्रु सेना का संहार कर विजय पाऊँगा। इसका धर्मध्यान रौद्र ध्यान में संक्रमित हो गया। अपनी इस रौद्र, घोर हिंसात्मक मानसिक स्थिति की कालिमा से घोर अशान्ति, खिन्नता की नारकीय स्थिति के वह सातवीं नरक की गति का बंध करने लगा। ज्योंही वह युद्ध करने के लिए चरण उठाने लगा त्योंही उसने अपनी वेशभूषा को देखा तो उसे होश आया कि मैंने राजपाट का त्याग कर संयम धारण किया है। मेरा राजपाट से अब कोई सम्बन्ध नहीं। इस प्रकार उसने अपने आपको संभाला। उसका जोश-रोष मन्द होने लगा। रोष या रौद्र ध्यान जैसेजैसे मन्द होता गया, घटता गया वैसे-वैसे नारकीय बंधन भी घटता गया और सातवीं नरक से घटकर क्रमश: पहली नरक तक पहुँच गया। इसके साथ ही पूर्व में बांधे सातवीं आदि नरकों की बंध की स्थिति व अनुभाग घटकर पहली नरक में अपवर्तित हो गये। फिर भावों में और विशुद्धि आई। रोष-जोश शांत होकर संतोष में परिवर्तित हो गया हृदय दिव्य दैवी गुणों से भर गया तो राजर्षि देव-गति का बंध करने लगा। इससे पूर्व ही में बंधा नरक गति का बंध देव गति में रूपान्तरित हो बंध तत्त्व [171]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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