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विलीन हो जाती है। जैसे त्रिवेणी संगम में गंगा और यमुना की धाराएँ तो प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं परन्तु सरस्वती की धारा नहीं दिखाई देती है, उसके लिए कहा जाता है कि वह अदृश्य रूप में इन दोनों ही धाराओं में विद्यमान रहती है । इसी प्रकार संवर-निर्जरा रूप गंगा-यमुना, साधना की ये दो धाराएँ स्पष्ट प्रकट हैं और पुण्य की धारा संवर - निर्जरा रूप इन दोनो धाराओं के तल में अव्यक्त रूप से अनुस्यूत रहती है। जिस प्रकार त्रिवेणी में निमग्न होने से तत्काल शारीरिक पवित्रता और शीतलता की उपलब्धि होती है । इसी प्रकार साधना की त्रिवेणी में निमग्न होने से तत्काल मानसिक और आत्मिक पवित्रता व शांति की उपलब्धि होती हैं परन्तु त्रिवेणी इनका भोग न करती हुई सतत प्रवाहमान रहती है। इसी प्रकार साधना-त्रिवेणी के योग से भौतिक एवं आध्यात्मिक ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ व निधियाँ प्राप्त होती हैं परन्तु साधक की साधना अजस्र प्रवाहमान रहती है, वह इनका भोग या उपभोग नहीं करता । संवर, निर्जरा तथा पुण्य रूप साधनात्रिवेणी की चारित्र की आराधना कर मुक्ति पाने में ही मानव जीवन की सार्थकता है। अत: मानव मात्र का कर्त्तव्य है कि वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप साधना-त्रिवेणी की आराधना कर अपने जीवन को सफल बनावे, मोक्ष प्राप्त करें ।
मोक्ष तत्त्व के विवेचन से यह स्पष्ट है कि 'मोक्ष-मार्ग' जीवन के आन्तरिक व बाहरी विकारों को दूर करने व सुख, शान्ति, स्वाधीनता, मुक्ति व परमानन्द प्राप्ति का व्यावहारिक व वैज्ञानिक मार्ग है । व्यावहारिक इसलिए है कि इसका सम्बन्ध व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन से है और प्रत्येक व्यक्ति इसे अपने जीवन के व्यवहार में अपनाकर सुख, शान्ति तथा आनन्द की उपलब्धि कर सकता है। वैज्ञानिक इस रूप में है कि इसमें विज्ञान के समान कारण- कार्य सम्बन्ध स्पष्ट है तथा साधना रूप कार्य के फल का प्रत्यक्ष अनुभव होता है । अन्तर केवल क्षेत्र का है और वह यह है कि विज्ञान का सम्बन्ध पदार्थों के साथ होने से वैज्ञानिक तथ्यों के प्रयोगक्षेत्र व फल का प्रत्यक्षीकरण भौतिक व बाहरी जगत् मे होता है और साधना का सम्बन्ध आत्मा के साथ होने से इसका प्रयोग क्षेत्र आत्मा है तथा इसके फल का प्रत्यक्षीकरण अन्तर्जगत् में होता है तथा इस नियम के अनुसार कि स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम रूप अधिक वि होता है, इस प्रकार भौतिक विज्ञान से साधना का आध्यात्मिक क्षेत्र अधिक व्यापक है।
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जैतत्त्व सार