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निकाचित करण
गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा 440 के अनुसार कर्म की वह अवस्था जिसमें उदय (उदीरणा), संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण आदि कुछ भी नहीं हो, कर्म जैसा बंधा है उसी अवस्था में रहे, इसे निकाचित करण कहते हैं। यथा किसी रोग के विषाणु शरीर के भीतर प्रवेश कर गये हों फिर वे ज्यों के त्यों विद्यमान रहें, उनमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हो, उसी तरह जिस बंधे हुए सत्ता में स्थित कर्म में उत्कर्षण आदि से कुछ भी परिवर्तन नहीं हो, कर्म की इस अवस्था को निकाचित करण कहते है। जैसे आगामी भव का बंधा हुआ आयु कर्म जो सत्ता में स्थित है उसमें अगले भव में उदय के पूर्व उत्कर्षण आदि किसी करण का नहीं होना निकाचित करण है।
नियम- निकाचित करण में उदय-उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण नहीं होते हैं।
निधत्तकरण और निकाचित करण ये दोनों ही करण अपना कुछ भी प्रभाव नहीं दिखाते हैं अर्थात् जीव को सुख-दुःख, हानि-लाभ नहीं पहुँचाते हैं, अतः निष्प्रयोजन हैं। यही कारण है कि कम्मपयडि, पंचसंग्रह आदि कर्म-सिद्धान्त के ग्रंथों में जहाँ संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन, उपशम आदि करणों का विशद वर्णन है
और टीकाकारों ने भी इनका विस्तार से विवेचन किया है, परन्तु निधत्त और निकाचित इन दोनों करणों का कुछ विवेचन न करके केवल इतना ही कहा है कि निधत्तकरण में उदय व संक्रमण नहीं होता और निकाचित करण में उदीरणा, उदय, संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन आदि करण नहीं होते हैं। निकाचित करण होता है कर्म नहीं
कतिपय विद्वानों की यह धारणा है कि निकाचित कर्म होता है और उसका बंध होता है। परन्तु कर्म-सिद्धान्त में मूल कर्म आठ एवं इनकी एक सौ अड़तालीस प्रकृतियां कही हैं। इनमें निकाचित कर्म व उसके बंध होने का कहीं भी उल्लेख नहीं है। कर्म सिद्धान्त में निकाचित को एक प्रकार का करण कहा है। करण कर्म की वर्तमान अवस्था को कहा जाता है। जैसा कि कहा है
बंधुक्कट्टणकरणं संकममोकटुदीरणा सत्तं। उदयुवसामणिधत्ती णिकाचणा होदि पडिपयडी॥
- गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा 437
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जैनतत्त्व सार