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सकाम निर्जरा रूप कर्मों का क्षय तप से होता है। तप के अनशन आदि बारह भेद हैं । तप से आत्मा पवित्र होती है, जिससे पुण्य कर्मों का उपार्जन होता है और उनके अनुभाग में वृद्धि होती है। पाप कर्मों का विशेषतः घाती कर्मों के अनुभाग व स्थिति का क्षय होता है, जिससे आत्म-गुण प्रकट होते हैं । अतः निर्जरा तत्त्व में पाप कर्मों की निर्जरा ही इष्ट है, पुण्य कर्मों की नहीं। कारण कि तप से पुण्य कर्मों की ३२ प्रकृतियों का अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट हो जाता है, फिर यह अनुभाग चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान के अंतिम समय तक उत्कृष्ट ही रहता है। किसी भी साधना से क्षीण नहीं होता है अर्थात् उसकी निर्जरा नहीं होती है।
तप के १२ भेद हैं- १. अनशन, २. ऊनोदरी, ३. भिक्षाचर्या, ४. रसपरित्याग, ५. कायक्लेश, ६. प्रतिसंलीनता, ७. प्रायश्चित, ८. विनय, ९. वैयावृत्त्य, १०. स्वाध्याय, ११. ध्यान और १२. व्युत्सर्ग। (भगवती शतक २५ उ.७ उत्तराध्ययन३० गाथा ७ व ३० तत्त्वार्थ सूत्र ९/१९-२०)
तप के बारह भेदों में से किसी से भी पुण्य कर्म का क्षय नहीं होता है, प्रत्युत पुण्य का उपार्जन ही होता है। तप के बारह भेदों मे स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि तपों का विशेष महत्त्व है। इन सबसे पाप कर्मों का क्षय होता है, परन्तु पुण्य कर्मों का क्षय न होकर उपार्जन होता है यथा- उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २९ पृच्छा २८-स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है।
पृच्छा २०- प्रतिपृच्छना से कांक्षा मोहनीय कर्म का नाश होता है।
पृच्छा २२- साधक अनुप्रेक्षा से सात कर्मों की पाप-प्रकृतियों के गाढ़ बन्धनों को शिशिल बंध, दीर्ध स्थिति बंध को अल्प स्थिाति बंध, तीव्र अनुभाग को मन्द अनुभाग, बहुप्रदेशी को अल्प प्रदेशी करता है।
पृच्छा ४४ - वैयावृत्त्य से तीर्थंकर नाम गोत्रकर्म का बंध करता है।
पृच्छा १२- कायोत्सर्ग से आत्मा-विशुद्धि व शुभ ध्यान करता हुआ सुख से विचरता है। काय गुप्ति में संवर होता है और फिर संवर के पाप के आस्रव का निरोध होता है। यहाँ संवर से पाप के आस्रव का निरोध होना बाताया है, पुण्य के आस्रव का नहीं।
जोगसच्चेणं जोगं विसोहई।। - उत्तरा अ. २९ बोल-५२ सत्ययोग से योग (मन-वचन-काया की प्रवृत्ति) की विशुद्धि होती है।
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जैनतत्त्व सार