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________________ क्रोध कषाय (क्रूरता, निर्दयता) के निवारण व क्षयोपशम से सातावेदनीय पुण्य प्रकृति का; मान कषाय के क्षयोपशम से, मद न करने से, मृदुता से उच्चगोत्र पुण्य-प्रकृति का; माया कषाय के क्षयोपशम से, ऋजुता से शुभ नामकर्म की पुण्य प्रकृतियों का; एवं लोभ कषाय के क्षयोपशम से देव, मनुष्य, आयु, पुण्य-प्रकृति का बंध होता है। इस प्रकार ध्यान आदि तप साधना से कषाय क्षय होता है जिससे अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियों के बंध का अवरोध होता है एवं पुण्य-प्रकृतियों का उपार्जन व उदय होता है। जिन साधकों ने ध्यानादि तप-साधना से चारों कषायों का पूर्ण क्षयकर दिया है, उनके उपर्युक्त समस्त पुण्य-प्रकृतियों का अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट हो जाता है, क्योंकि ये शुभ (पुण्य) कर्म-प्रकृतियाँ आत्मा की शुद्धता की सूचक हैं। अतः इन्हें क्षय करने हेतु साधना की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। आयुष्य पूर्ण होने पर ये स्वतः क्षय हो जाती हैं। तप से सिद्धत्व की प्राप्ति सुख जीव का स्वभाव है। सच्चे सुख का अनुभव निज स्वभाव में स्थित होने में ही है। मन, वचन और तन की किसी क्रिया के करते हए बहिर्मुखी अवस्था रहती है, जिससे स्वभाव में स्थित होना सम्भव नहीं है। इसीलिए साधना में तन की क्रिया का निरोध करने के लिए स्थिर-निश्चल आसन में बैठना होता है। वचन की क्रिया का निरोध करने के लिए मौन का विधान है। मन की क्रिया का निरोध करने के लिए मन को अन्तर्मुखी बनाकर स्व में स्थित करना है। अन्य उपायों से किया गया मन का लय तात्कालिक लाभ पहँचाता है। जैसे प्राणायाम से श्वास पर ध्यान लगाने से भी मन एकाग्र होता है, परन्तु जैसे ही प्राणायाम बन्द कर दिया जाता है तो मन बहिर्गामी होकर विषय-वासनाओं में भटकने लगता है। इसी प्रकार किसी आकृतिविशेष के चिन्तन, नाम स्मरण, मन्त्र, जाप, त्राटक आदि करने से भी मन एकाग्र हो जाता है, उस समय वासनाएँ दब जाती हैं, परन्तु उनका नाश नहीं होता है। अतः पुनः विषय-विकारों का उदय हो जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि मन को एकाग्र करने की क्रियाओं का उद्देश्य वासनाओं से विरक्त व देहातीत होना नहीं होता है, अपितु शरीर और मन को स्वस्थ व सशक्त बनाकर इसे अधिकाधिक विषयसुखों का भोग करना होता है। प्रतिदिन गहरी निद्रा में यही कार्य प्रकृति से स्वतः होता है। गहरी निद्रा में मन-वचन-तन इन तीनों का लय हो जाता है जिससे सुख की अनुभूति होती है, रोगों का निवारण होता है, शक्ति का संचय व वृद्धि होती है, परन्तु इस अवस्था में जड़ता की स्थिति रहती है। अतः इससे आध्यात्मिक विकास [134] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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