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नवीन पाप कर्मों का बन्ध रुकता है तथा आभ्यन्तर तप से कषायों का क्षय होता है जिससे सत्ता में स्थित पूर्व संचित पाप कर्मों के स्थिति बन्ध व अनुभाग बन्ध का घात-क्षय होता है। स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध का क्षय होना ही निर्जरा होना है। इस प्रकार तप से पाप कर्मों के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग इन चारों प्रकार के बन्धों की निर्जरा होती है और उनका क्षय होता है। अघाती कर्मों की निर्जरा साधक के लिए आवश्यक नहीं है। कषाय के क्षय से अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियों का पुण्य प्रकृतियों में संक्रमण होने से उन पाप प्रकृतियों की सत्ता का क्षय होता है, निर्जरा होती है। वीतराग के अघाती कर्मों का क्षय आयुष्य पूरा होने पर स्वतः हो जाता है। उस समय जैसे यथाख्यात चारित्र छूटता है वैसे ही अघाती कर्म भी छूट जाते हैं, निर्जरित हो जाते हैं।
प्रायश्चित्त से दोषता, विनय से अहंता, वैयावृत्त्य से ममता व जड़ता, स्वाध्याय से पराधीनता, ध्यान से चंचलता और व्युत्सर्ग से राग-तादात्म्य का नाश होकर क्रमशः निर्दोषता, निरहंकारता, निर्ममता, स्वाधीनता, निर्विकल्पता और वीत-रागता की उपलब्धि होती है जिससे आसक्ति मिटकर, कषाय क्षीण होकर कर्म खिर जाते हैं।
मानसिक दु:खों के कारणों की खोज से ज्ञात होता है कि इन दुःखों का कारण है पाप। पाप उत्पत्ति का कारण है कर्म। कर्म का कारण है कामनाएँ। कामनाएँ उत्पत्ति का कारण है कामना पूर्ति जनित सुख लोलुपता। अत: मानसिक दुःखों का मूल कारण है कामना पूर्ति जनित सुख लोलुपता, अर्थात् कामना पूर्ति जनित सुखों के प्रति रति । कामना पूर्ति जनित सुख लोलुपता से चित्त के साथ आत्मा का तादात्म्य भाव होता है जिससे प्राणी का चित्त अशुद्ध हो जाता है।
तप साधना से साधक सुख कामना पूर्ति में नहीं, निष्काम होने में है, इस तथ्य का साक्षात्कार करता है। तप से साधक में सुखों के प्रति विरति उत्पन्न होती है। विरति से सजगता आती है। सजगता से कामना या कषाय की विद्यमानता असह्य हो जाती है, जिससे सुख लोलुपता रूप रस सूखने लगता है। रस सूखने से कषाय निर्जीव होकर क्षय होने लगता है। कषाय के क्षय होने से कर्म निर्जरित हो जाते हैं।
जिस प्रकार ताप से एक-एक बीज भस्म या निर्जीव न होकर अगणित बीज एक साथ निर्जीव हो जाते हैं व फल देने की शक्ति खो देते हैं, इसी प्रकार तप से असंख्य कर्म एक साथ रसहीन व निर्जीव हो जाते हैं, तथा अपनी फल देने की
निर्जरा तत्त्व
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