________________
-
ब्रह्मचर्य और परिग्रह-परिमाण नामक अणुव्रतों का पालन कर व्यक्ति अपने जीवन को समस्यारहित बना सकता है। श्रावक धर्म के पालन से हिंसा, क्रूरता, अविश्वास, शोषण, दुराचार, विषमता, संघर्ष आदि दोष घटते एवं मिटते हैं एवं अहिंसा, आत्मीयता, सहृदयता, विश्वास, प्रामाणिकता, नैतिकता, सदाचार, समता आदि सद्गुणों का पोषण, प्रचार एवं प्रसार होता है। श्रमण धर्म भी संवर एवं निर्जरा की साधना रूप धर्म है । पाँच समिति व तीन गुप्ति का पालन संवर-साधना का उत्कृष्ट रूप है । प्रसंगवश अहिंसा की व्यापक चर्चा भी पुस्तक की उपयोगिता को सिद्ध करती है । लेखक ने सकारत्मक अहिंसा को धर्म के रूप में प्रतिपादित किया है। दरिद्रता और अपरिग्रह में अन्तर बताते हुए कहा है - "बाह्य दृष्टि से दोनों एक से लगते हैं, परन्तु आभ्यन्तर रूप से व परिणाम मे महान अन्तर है । दरिद्र के पास वस्तु या धन ने होने पर भी उसके दिल में वस्तु या धन का मूल्य, धन का महत्त्व, धन की अभिलाषा एवं धन की रुचि रहती है जबकि अपरिग्रही चारों ओर वस्तुओं से घिरा होने पर भी उसने जल-कमलवत् अलिप्त रहता है । (पृष्ठ १८१ ) प्रत्याख्यान, वोसिरामि और मिच्छमि दुक्कडं में भेद का प्रतिपादन करते हुए लेखक ने कहा है कि प्रत्याख्यान से नवीन कर्म बंधना रुकता है, वोसिरामि से उदयमान कर्म प्रभावहीन हो जाते हैं, तथा मिच्छामि दुक्कडं से पूर्व बंधे कर्म - निष्प्राण, सत्त्वहीन व रसहीन हो जाते हैं । ( पृष्ट १८१ ) प्रमाद को त्यागकर अप्रमाद को अपनाने की प्रेरणा करने हेतु इस प्रस्तक में दो लेख सम्मिलित हैं । कषाय अकषाय के अन्तर्गत एक अत्यन्त महत्वपूर्ण लेख है- 'कषाय की कमी से पुण्यास्रव की गहन चर्चा करते हुए साता - असातावेदनीय, शुभअशुभ आयु, शुभ-अशुभ नाम कर्म और उच्च एवं नीच गोत्र के उपार्जन के हेतुओं का प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकरण में आपने कहा है कि कषाय के क्षय के दो प्रकार के फल मिलते हैं- १. पाप कर्मों का क्षय होता है । २. पुण्य कर्म का उपार्जन होता है अथवा यों कहें कि कषाय का क्षय का आभ्यंतरिक फल, क्षमा, सरलता, मृदुता आदि धर्मों की उपलब्धि होना है और बाह्य फल सातावेदनीय, उच्च मित्र, नाम आदि का एवं शुभ प्रवृत्तियों का उपार्जन होना है। लेखक ने यह भी स्पष्ट किया है कि पाप प्रकृतियों का क्षय और पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन अनुभाग बन्ध की न्यूनाधिकता की अपेक्षा समझना चाहिए। (पृष्ठ १९५ ) करुणा जीव का स्वभाव है, विभाव
-
आस्रव-संवर तत्त्व
[ 105 ]