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________________ संयम, त्याग, तप व श्रेणीकरण की साधना से होने वाली आत्मा-पवित्रता से होता है। अतः पुण्य को संसार-भ्रमण को कारण मानने वालों को संयम, त्याग, तप, श्रेणीकरण आदि मुक्ति-प्राप्ति की साधनाओं को भी संसारभ्रमण का कारण मानना पड़ेगा, जो घोर मिथ्यात्व है। (पृष्ठ ३२-३३) लेखक ने दर्शन गुण, दर्शनोपयोग और सम्यग्दर्शन में भेद का प्रतिपादन सम्यक् रीति से किया है। आध्यात्मिक क्षेत्र में सम्यग्दर्शन और भेद विज्ञान को एकार्थवाची प्रतिपादित किया है। अविरति-विरति खण्ड में व्रत एवं त्याग का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। व्रत स्वीकार करने पर व्यक्ति संयमीबनता है जिससे आस्रव का निरोध होता है। व्रत की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए लेखक ने कहा है-"व्रत न लेना अपने आपको युद्ध के खुले मैदान में असुरक्षित छोड़ देना है, जहाँ पर सब ओर से प्रहार व आक्रमण की आशंका एवं भय सदा बना रहता है। व्रत दुर्ग के समान है, जिसका आश्रय ग्रहण कर व्यक्ति अपने को प्रलोभन, भय आदि अस्त्रों के प्रहारों, आक्रमणों व तूफानों सुरक्षित रख सकता है। (पृष्ठ ५५) प्रायः दोषों की कमी होने पर व्यक्ति सन्तुष्ट देखा जाता है, किन्तु पुस्तक के लेखक का मन्तव्य है कि दोषों की कमी तो निमित्त कारणों के अभाव व दुःख के भय से भी हो सकती है, इसलिए महत्त्व दोषों की कमी का नहीं, अपितु दोषों के त्याग का है। त्याग से ही सुख, शान्ति एवं मुक्ति की प्राप्ति संभव है। आवश्यकता है अहंत्व एवं ममत्व का त्याग करने की। कतिपय चिन्तकों की यह मान्यता है कि चरम भोग के पश्चात् ऊबने के कारण उसका स्वतः त्याग कर दिया जाता है, किन्तु लोढ़ा साहब ने इस मान्य का खण्डन करते हुए प्रतिपादित किया है कि अतिभोग के पश्चात् भी भोगने की कामना ज्यों की त्यों शेष रहती है। भोग भोगने से विरक्ति होती तो प्रत्येक व्यक्ति खाने-पीने, देखने-सुनने के बीसों भोग भोगता है, इस प्रकार आज तक हजारों-लाखों बार भोग भोग लिये। अतः अब तक विरक्ति हो जानी चाहिए थी। परन्तु देखा जाता है कि मनुष्य जितना अधिक भोग भोगता जाता है, उतनी उसकी भोग-वासना पुष्ट व प्रबल होती जाती है। ( पृष्ठ ८१) भोग तो भव-भ्रमण का कारण है। इसके विपरीत आज के युग में श्रावक धर्म को अपनाने की महती आवश्यकता है। श्रावक धर्म में अहिंसा, सत्य, अचौर्य. [104] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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