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संवर, निर्जरा और पुण्य साधना के इन तीन अंगों में से संवर और निर्जरा रूप धर्म का फल तत्काल मिलता है, क्योंकि ये क्रियाएँ कोई 'कर्म' नहीं हैं जिसका फल बाद में उदय में आकर मिले। कर्म का फल उदय आकर बाद में मिलता है, धर्म का फल तो तत्काल ही मिलता है, कारण कि ऐसा कोई हेतु नहीं है जिससे धर्म का फल पीछे मिले। संवर और निर्जरा आत्मा के विकारों को दूर करने की क्रिया है। यह नियम है कि विकार दूर होते ही तत्काल प्रसाद मिलता है। ऐसा नहीं होता कि विकार तो अभी दूर हों और फल कभी मिले। जिस प्रकार शारीरिक विकार (रोग) जिस समय दूर होते हैं उसी समय तत् सम्बन्धी पीड़ा मिट कर शान्ति व सुख की अनुभूति होती है। यह नहीं होता कि शरीर का रोग तो आज मिटे और शान्ति कल मिले। इसी प्रकार संवर और निर्जरा से आत्मिक विकार दूर होने की तत्काल अनुभूति होती है। यदि साधक को ऐसी अनुभूति नहीं होती है तो यह निश्चित है कि उसकी संवर और निर्जरा की क्रियाएँ समीचीन नहीं हैं, उसने इन क्रियाओं के रूप में किसी सूक्ष्म राग एवं सुख लोलुपता-रूप दोष की आराधना की है।
संवर-तप की साधना, स्वाधीन साधना है, क्योंकि इसमें आत्म-विकारों को दूर करने के लिए पर के आश्रय व सहायता की अपेक्षा नहीं है। पर की सहायता अपेक्षित न होने से इन साधनाओं का किसी परिस्थिति विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं है, ये वर्तमान परिस्थिति में ही की जा सकती हैं। वस्तुतः साधना वर्तमान की ही वस्तु है तथा इसे मानव मात्र करने में समर्थ व स्वाधीन है। जो साधना वर्तमान में ही की जा सकती है उसे भविष्य पर टालना घोर प्रमाद है तथा जीवन की सबसे बड़ी असावधानी व भारी भूल है।
किसी का अहित न करने एवं सबके हितचिन्तन के भाव रूप पुण्य की साधना में सब स्वाधीन हैं, परन्तु सर्व-क्रियात्मक भाव को हितकारी प्रवृत्ति का रूप देने में वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि की अपेक्षा या आवश्यकता होती है, अतः इसमें प्रत्येक साधक की अपनी सीमा है। साधक को वर्तमान में प्राप्त अपनी परिस्थिति का ही सर्वहितकारी प्रवृत्ति में सदुपयोग कर उसकी दासता से छूटना है। उसे अप्राप्त परिस्थिति का आहवान नहीं करना है। अप्राप्त परिस्थिति का आहवान करना, परिस्थिति में आसक्ति बनाये रखने व परिस्थिति की दासता को पसन्द करने का द्योतक है, जो असाधन रूप है।
ऊपर संवर, निर्जरा और पुण्य, साधना के तीन रूप कहे गये हैं। ये ही साधना या चारित्र की तीन धाराएँ हैं। इन तीनों धाराओं का संगम ही साधना की त्रिवेणी है।
आस्रव-संवर तत्त्व
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