________________
जिससे 'स्वरूप' की अनुभूति होती है । स्वरूप की अनुभूति में ही शांति, समता, स्वाधीनता व परमानन्द की उपलब्धि निहित है ।
विरति विवेक के अनादर के कारण, पर पदार्थों के भोग में जीव को सुख की प्रतीति होती है। सुख की प्रतीति होने से पदार्थों के प्रति रति (राग) और अरति (द्वेष) भाव उत्पन्न होता है । यही रति या राग रूप सुख - लोलुपता, वासनाओं एवं कामनाओं को जन्म देती है, जिनके अधीन हो, बेचारा प्राणी उनकी पूर्ति के लिए प्रवृत्ति करता है। उसकी यही रागात्मक वृत्ति एवं इस वृत्ति की पूर्ति हेतु की गई प्रवृत्ति अविरति है । यही असंयम है। असंयम अविरति का ही क्रियात्मक रूप है।
-
सम्यक्त्व प्राप्ति से साधक इस तथ्य को जान लेता है कि पर पदार्थ मेरे से भिन्न हैं और मेरा सुख पर पदार्थों के अधीन नहीं है, 'पर' पदार्थों से सुख की प्राप्ति यथार्थ सुख न होकर सुख की प्रतीति मात्र है, सुखाभास है । पर पदार्थों से सुख की प्राप्ति होती है, इस मान्यता के हटते ही साधक का पर के प्रति विराग भाव उत्पन्न हो जाता है, फिर उसे अपना हित व सुख भोगों, वासनाओं, कामनाओं के त्याग में अनुभव होने लगता है। फलतः वह भोगों, वासनाओं, कामनाओं, पापों को त्यागने, संकुचित, सीमित व संयमित करने हेतु व्रत धारण करता है। व्रत विरतिभाव का क्रियात्मक रूप है, इसी को संयम कहते हैं ।
विरति के दो रूप हैं- (१) पाप रूप अशुभ प्रवृत्तियों का त्याग, यह 'विरति' संवर साधना का निषेध परक रूप है । (२) दूसरा रूप विधि परक है। इसमें अणुव्रत, महाव्रत, ईर्ष्या, भाषा, एषणा आदि समितियों का पालन करना, अनित्य, अशरण आदि भावनाओं का चिंतन करना आदि साधना की प्रवृत्तियाँ हैं । ये प्रवृतियाँ राग घटाने एवं वृत्तियों से अतीत व शुद्धावस्था की प्राप्ति में हेतु हैं इसलिए साधना अंग हैं। विरति से राग घटता है । राग के घटने से साधक में निराकुलता, शांति व स्वाधीनता के भावों को बल मिलता है तथा स्थिरता प्राप्ति में वृद्धि होती है । विरति या व्रत धारण करना संवर साधना का प्रधान क्रियात्मक व विधिपरक रूप है। अतः यह व्यवहार में संवर का पर्यायवाची बन गया है।
अप्रमादः - भोगों की सुख - लोलुपता में प्रमत्त होना, विकारों को त्यागने के लिए उद्यत न होना, भविष्य पर टालना प्रमाद है । प्रमत्तता से प्राणों में जड़ता आ है, सजगता नहीं रहती। फलतः उसमें साध्य की प्राप्ति के प्रति उदासीनता, शिथिलता आ जाती है, जिससे साधना की प्रगति रुक जाती है । वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के
जैतत्त्व सा
[80]