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रासो साहित्य की विशेषता ___कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचंद्रसूरिजी द्वारा रचित महाग्रंथ 'त्रिषष्ठि शलाकापुरुष चरित्र' में वर्णित २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव तथा ९ प्रतिवासुदेव के चरित्र ही अधिकतर रासा साहित्य के विषय बने है। इनके अतिरिक्त उच्च गुणों के धारक महान संत-सतियों के जीवन तथा धर्मसाधना को आत्मसाधना को ही जीवन का लक्ष्य बनानेवाले, संसार में रहकर आत्मसिद्धि को प्राप्त करनेवाले महान नर-नारियों की जीवनगाथाओं को भी इस रासो साहित्य में आलेखित किया गया है।
तीर्थंकर भगवंत प्रभु नेमनाथ तथा उनके साथे नव-नव जन्मों से विभिन्न स्नेह संबंधो में बंधी राजीमति राजुल की कथा सभी को आकृष्ट करे ऐसी है। मैंने भी उस सिद्ध दंपति की कथा का वर्णन करनेवाली कृति पंडितप्रवर
श्री पद्मविजयजी गणिवर रचित 'नेमीश्वर रास' को मेरे निबंध के लिए पसंद किया है। इस कृति की रचना वि. सं. १८०२ में राधनपुर में हुई थी तथा उसके संशोधक-संपादक पू. आ. श्री विजयजिनेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज है। उन्होंने भी अपनी प्रस्तावना में यही लिखा है कि 'भूतकाल में ऐसे रास रात के समय गाये जाते थे जिससे धर्म एवं ज्ञान की प्रवृत्ति चलती रहती थी और जीव संसार का स्वरूप समझकर उससे मुक्त होने की अभिलाषा करते थे। रासो के गान से बालजीव बोध प्राप्त करते थे।' कथा
तीर्थंकर भगवंत प्रभु नेमनाथ तथा राजुल कथा से कोई भी जैन धर्मानुयायी अनभिज्ञ-अपरिचित हो ही नहीं सकता । महाराजा समुद्रविजय तथा माता शिवादेवी के सुपुत्र भगवान नेमनाथ का जन्म श्रावण शुक्ला पूर्णिमा के दिन शौरीपुर में हुआ था। राजीमती राजुल राजा उग्रसेन की पुत्री थी। प्रथम से ही संसार से विरक्त भगवान नेमनाथ माता-पिता तथा अन्य परिवार के स्वजनों के बहुत समझाने पर विवाह के लिए तैयार तो हुए, परंतु विवाहमंडप की ओर जाते समये मूक पशुओं की आर्त पुकार से उस करुणानिधान की विरक्ति प्रबल हो उठी और सारथी से कहा -
'नेमजी कहे सुण सारथी रे, कुण रुवे छे दुःखभारथी रे ।'
* श्रावण शुक्ल पंचमी नेमिनाथ जन्म कल्याणक के रूप में प्रसिद्ध है । सं. 562 * छैन. स. विमर्श