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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य कवि दीपचन्द जी ने गद्य और पद्य दोनों में अनेक ग्रन्थों की रचना की है। 'ज्ञानदर्पण' और 'अनुभव-प्रकाश' छप चुके हैं।
- मयूर मिश्र ने सं० 1871 में 'पुरुषार्थ सिद्धोपाय' की भाषा टीका रची थी और 'चर्चा समाधान' भी उनकी रचना है।
दीवान चम्पाराम जी ने 'जैन चैत्यस्तवग्रन्थ' की रचना की थी, जिसमें उन्होंने मूर्ति-पूजा के पोषण का तात्त्विक ढंग से निरूपण किया है। इस ग्रन्थ से उस समय की धार्मिक परिस्थिति का ख्याल आता है। कवि ने जिन प्रतिभा में किस प्रकार दृढ़ विश्वास रखना चाहिए एवं जिनकी अपेक्षा जिन मूर्ति क्यों अधिक महत्वपूर्ण है यह बताते हुए लिखा है
श्री जिन करे विहार नीति, भव-जल तारण हेत, पीछे भविक जनन कुं, विरह महादुःख देत। श्री जिन बिम्ब प्रभावजुत, बसें जिनालय नित्त, विरह रहित सेवक सदा, सेवा करें सुचित॥
कवि मनरंगलाल जी ने गोपालदास नामक धर्मात्मा के कहने से 'चौबीस तीर्थंकर का पाठ' सं. 1857 में रचा था। इनकी कविता रोचक एवं भावपूर्ण है। इनकी अन्य रचनाएं 'नेमिचन्द्रिका', 'सप्तव्यसनचरित्र' और 'सप्तर्षिपूजा' है। उन्होंने ही सं० 1889 में 'शिखरसम्मेदाचल माहात्म्य' नामक एक अन्य ग्रन्थ भी रचा है।
वृन्दावन की 'चौबीसी पाठ' कृति की तरह 'मनरंग चौबीसी पाठ' की भी काफी ख्याति हुई थी। दोनों ही कई बार छप चुकी हैं। भाव-सौष्ठव जो मनरंग के पाठ में है, वह शब्दालंकार की छटा में वृन्द के पाठ में छिप गया है।" कवि की भावपूर्ण विनती देखिएयुवा वय भई काम की चाह बाड़ी, वियोगी भये सोग की रीति काही। न देखें तुम्हें ही भले चित्त मेरी, प्रभु मेटिये दीनता मेरी॥ जरा-रोग में घेर के मोहि किन्हों, महाराज रोगी भलो दाव लिन्हो। झड्या जो पको पान कालनि लेरी, प्रभु मेटिये दीनता मेरी॥
कवि अत्यन्त श्रद्धा भक्ति से प्रभु-प्रसाद तथा भक्ति का रूप बतलाते हुए कहते हैं
भलो या बुरो जो कुछ हो तिहारो, जगन्नाथ ये साथ मो पे तिहारो। बिना साथ तेरे न एको बनेवा, नमो जब हमें दीजिए पाद-सेवा॥
कवि कमलनयन जी ने सम्मतशिखरजी की यात्रा स्वयं करके इसका 1. आ. कामताप्रसाद जैन : हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 212.