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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका
गेह छोड़ वन में गये, सरे न एको काम, आसातिसना ना मिटी, कैसे मिलिहें राम। गोरे-गोरे गात पर, काहे करत गुमान,
ए तो कल उडि जायेंगे, धुंआ धनलर जात। कवि की कविता में व्यावाहारिक उपदेश भी सुनने को मिलता है। यथा
घात वचन नहिं बोलिकै, लागे दोष अपार, कोमलता में गुण बहु-सबको लागे प्यार।
राजस्थान का इतिहास लिखने में कर्नल टोड़ को बहुत सहायता करने वाले यति ज्ञानचन्द्र जी स्वयं भी राजस्थान के इतिहास के ज्ञाता एवं संग्रहकर्ता थे। उनकी रची हुई फुटकर कविताएं प्राप्त होती हैं। मिश्रबन्धुओं ने इनका पद्य-रचनाकाल सं० 1840 में माना है।
कवि बुधजन जी भी इसी शताब्दी के एक महत्वपूर्ण कवि हैं। उन्होंने चार पद्य-ग्रन्थों की रचना की थीं-तत्वार्थ-बोध, बुधजन सतसई, पंचास्तिकाय और बुधजनविलास। इनमें से बुधजन सतसई का विशेष प्रचार रहा है। उनकी भाषा पर मारवाड़ीपन का प्रभाव दिखता है। कवि ने बुधजन-नीति में अनेक सुभाषितों की रचना की है, जिनमें हार्दिकता एवं सरलता प्रकट हुए बिना नहीं रहती। कवि कहते हैं
पर उपदेश करन निपुन ते तो लखे अनेक। करे समिक बोले समिक जे हजार में एक॥ दुष्ट मिलत ही साधुजन, नहीं दुष्ट हेवें जाय। चन्दन तरु को सर्प लगि, विष नहीं देता बनाय॥
श्री माणिकचन्द्र जी के मतानुसार इनकी तुलना वृंद, रहीम, तुलसीदास और कबीर के दोहों से पूर्णतया की जा सकती है।
साधुचन्द्रविजय के कुछ पदों का संग्रह प्राप्त होता है। कवि जिनदास का रचा हुआ 'सुगुरु-शतक' है जिसमें कवि कहते हैं
नमूं साधु निर्ग्रन्ध गुरु, परम धरम हित देन। सुगति करन भवि जनन कू, आनंद रूप सुवेन।।
कवि हरिचन्द जी की सं. 1836 में लिखी हुई 'पंचकल्याण महोत्सव' नामक रचना प्राप्त होती है-एक उदाहरण द्रष्टव्य है
जिन धर्म प्रभावन, भव-भव पावन, जण हरिचंद चाहत, तीन-तीन वसु चन्द्र ये संवत्सर के अंक, श्रेष्ठ सुकल सप्तमि सुभग, पूरत पड़ो निसंक।