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________________ 70 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य की थी। तुलसी रामायण की तरह जैन रामायण की रचना करने की कवि जी को अत्यन्त चाह थी, लेकिन अपनी इच्छा पूर्ण होने की संभावना न रहने से अंतिम सांस लेते वक्त पुत्र को सौंपने से सुयोग्य पुत्र ने प्रारंभ किया, लेकिन 71 सर्ग तक आते-आते वे भी कालकलित हो जाने से यह ग्रन्थ अपूर्ण एवं अप्रकाशित रहा। उनकी 'संकटमोचन' कविता जैन समाज में अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिसमें भक्तिवाद का पूरा चित्रण है। प्रेमी जी लिखते हैं-"वृंदावन जी स्वाभाविक कवि थे। उन्हें जो कवित्व शक्ति प्राप्त हुई थी, उनमें जो कवि-प्रतिभा थी, उसका उपार्जन पुस्तकों अथवा किसी के उपदेश द्वारा नहीं हुआ था, किन्तु वह पूर्वजन्म के संस्कार से प्राप्त हुई थी। उनकी कविता में स्वाभाविकता और सरलता बहुत है। शृंगार रस की कविता करने की ओर उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं हुई। जिस रस के पान करने से जरामरण रूप दु:ख अधिक नहीं सताते हैं और जिससे संसार प्रायः विमुख हो रहा है, उस अध्यात्म तथा भक्ति रस के मंथन करने में ही कविवर की लेखनी डूबी रही।" उन्होंने प्राकृत ग्रन्थ का 'प्रवचनसारटीका' नाम से पद्यानुवाद किया है, जो उनका प्रमुख ग्रन्थ है। इसके अलावा 'चौबीस-जिन पूजा पाठ' भी उनकी प्रमुख रचना है, जो कई बार प्रकाशित हो चुकी है। इसमें अनेक विध अलंकारों की भरमार है। इसमें कला पक्ष-भावपक्ष की अपेक्षा विशेष अलंकृत है। 'छन्द शतक' विविध छन्दों का ज्ञान देनेवाला सरल ग्रन्थ है। वृंदावन-विलास' कविवर की तमाम फुटकर रचनाओं का संग्रह है। आध्यात्मिक रस में डूबा हुआ एक उदाहरण देखिए जो अपने हित चाहत है जिय, तो यह सिख हिये अवधारो। कर्मज भाव तजो सवहिं निज, आतम को अनुभव रस गारो। श्री जिनचंद सों नेह करों मित, आनंद कंद दशा बिसतारो। मूढ़ लखे नहिं गूढ कथा यह, गोकुल गांव को पेडों ही न्यारो॥ चेतन कवि ने सं० 1853 में 'अध्यात्म बारहखड़ी' नामक रचना रची थी। उनकी कविता अच्छी और उपदेशपूर्ण है। कवि ने मानव को गर्वरहित होकर प्रभु भक्ति में अटल विश्वास रखने का उपदेश दिया है, क्योंकि जो होनेवाली है, वह तो होके ही रहेगी। भाषा पर राजस्थानी शब्दों का प्रभाव अवश्य है, वे कहते हैं गरव न किजे प्राणियों, तन धन जोवन पांय, आखिर ए थिरना रहे, थित पूरे सब जाय। गाढ़ रहिये धरम में, करम न आवे कोय, अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होय॥
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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