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________________ आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका भट्टारकों के अखण्ड राज्य को वह चूपचाप आंखे मूंद कर मान रहा था। उसका विचार-स्वातंत्र्य अपहृत हो चुका था। उसकी आत्मा 'गुरुड़म' के बोझ से दबी हुई तिलमिला रही थी। ऐसे समय में पूज्यवर पं. टोडरमल जी ने क्रान्ति की आग सुलगाई, जिसमें 'गुरुड़म' का खोखला पिंजर नष्ट हो गया। + + +इस सामाजिक स्थिति का प्रभाव साहित्य पर भी हुआ और ऐसी रचनाएं प्रकार में आई जो नये सुधार की पोषक थीं, यद्यपि भक्तिवाद की लहर से वे अछूती न रह सकीं।"' पं. नाथूराम जी ने अभिमत दिया है कि-पं० टोडरमल जी इस शताब्दी के सबसे बड़े सुधारक, तत्त्ववेत्ता और प्रसिद्ध लेखक थे। उन्होंने अपनी रचनाओं से तत्वज्ञान के बन्द प्रवाह को असामान्य रूप से प्रवाहित किया। 15-16 साल की छोटी-सी उम्र में ही ग्रन्थ रचने लगे थे। आपका सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ 'गोम्मटसार वचनिका' है, जो नेमिचन्द्र स्वामी कृत प्राकृत ग्रन्थ 'गोम्मटसार' की वचनिका-भाषा टीका है। श्रीयुत् पं. परमेष्ठिदास जी व्यासतीर्थ ने लिखा है कि 'श्रीमान् पंडित प्रवर टोडरमल जी 19वीं शताब्दी के उन प्रतिभाशाली विद्वानों में से थे, जिन पर जैन-समाज ही नहीं, सारा भारतीय समाज गौरव का अनुभव कर सकता है। उनकी आध्यात्मिक वाणी देखिए मंगलमय मंगलकरण, वितराग, विज्ञान। ममहुं ताहि जाते भये अरहंतादि महान्॥ में आतम अर पुदगल स्कंध, मिलिकें भयो परस्पर वंध। सो असमान जाति पर्याय, उपजो मानुष नाम कहाय॥ जयचन्द जी को प्रेमी जी इस शताब्दी के लेखकों में दूसरे नम्बर पर बिठाते हैं। उन्होंने भी बहुत-से महत्वपूर्ण संस्कृत-प्राकृत के ग्रन्थों का पद्यानुवाद किया और स्वतंत्र रचनाएं भी की हैं। न्याय विषयक कठिन ग्रन्थों का भी उन्होंने अनुवाद किया, जिसमें प्रमुख हैं-सर्वार्थसिद्धि, परीक्षा-मुख, द्रव्य-संग्रह, ज्ञानार्णव, भक्तामर-चरित्र, आदि अनेक हैं। सबका उल्लेख यहां संभव नहीं है। इनके अलावा उनके रचे हुए पद और विनतियाँ भी हैं। जयचन्द जी की गद्य शैली भी बहुत अच्छी थी। उनके कई ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। कवि वृन्दावन जी को भी प्रेमी जी ने इस काल के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में महत्व दिया है। कविवर ने 'छन्दशतक' की रचना अपने पुत्र के लिए 1. आचार्य कामताप्रसाद जैन : हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 184, 185. 2. पं. नाथूराम प्रेमी-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 72. 3 पं. परमेष्ठिदास व्यासतीर्थ : 'रहस्यपूर्ण चिट्ठी' की भूमिका, पृ. 9, 10.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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