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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका
शास्त्र-भण्डारों में उनकी अनेक हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त होती है। सबसे पहले उन्होंने ही संस्कृत के छन्दों का हिन्दी में कुशलता से सफल प्रयोग किया और नये छन्दों का भी प्रयोग किया था। सं० 1777 में रची हुई 'पुण्याश्रववचनिका' भी संभवतः आपकी कृति है। 'अध्यात्म बारखडी' में भक्ति रस छलाछल भरा पड़ा है। कवि भक्ति रस की चरम-सीमा पर पहुंच कर भाव विभोरता एवं तल्लीनता का आनंद महसूस करते हैं। सबके भीतर रहे 'राम' की वंदना करते हुए कवि गाते हैं
बंदो केवलराम को, रमी जू रह्यो सब मांहि,
ऐसी ठोर न देखिए, जहां देव वह नाहिं। 'आतमदेव' की सेवा के लिए कवि कहते हैं
पूजों आतम देव को, करे जु आतम सेव, श्रेयातन जगदेव जो, देव देव जिन देव।
हिन्दी के सन्त कवियों की तरह दौलतराम जी भी मानते हैं कि केवल मुंड मुंडाने से ही कुछ नहीं होता, आतमराम की सेवा करने से ज्ञान उत्पन्न होता है। आतमराम की सेवा केवल भगवान की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है। क्योंकि
मूंड मुंडाये कहा, तत्व नहीं पाये जो लो, मूढ़ यति को उपदेश सुने, मुक्ति की जु नहीं तोली मल-मूत्रादि भर्यो जू देह कबहिं नहिं सुद्धा सुद्धो आतमराम ज्ञान को मूल प्रबुद्धा।
इसी शती में बनारसीदास नामक अन्य कवि की रचनाएं भी प्राप्त होती हैं, जो प्रसिद्ध कवि धानतराय के गुरु थे। बिहारीदास जी की गिनती विद्वान पंडितों में की जाती थी और आगरे में उनकी 'शैली' चलती थी। उन्होंने ही धानतराय को जैन धर्म के प्रति श्रद्धावान बनाया था। उनकी रचनाओं में 'सम्बोन्ध पंचासिका', 'जखड़ी', और 'आरती' प्रमुख है। धानतराय जी की कविता पर उनका विशेष प्रभाव देखा जाता है। कवि मनुष्य जन्म की महत्ता बताते हुए कहते हैं
आतम कठिन उपाय पाय नरभव क्यों तजे, राई उपधि के समानी फिर ढूंढ नहीं पायें ई विधि नरभव को पाय विषे सुष-सोरभ, सो सठ अमृत बोय हलाहल विष आचरे।' कवि खुशालचन्द काला भी इसी काल के है और अपने विद्वान दयावान