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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
डा. प्रेमसागर जी ने उपरोक्त रचना के अलावा स्तोत्र साहित्य में 'स्वयंभूस्तोत्र', 'पार्श्वनाथ स्तोत्र' और 'एकीभाव स्तोत्र' को गिनाया है, जिनमें प्रथम दो मौलिक है और तीसरा वादिराजसूरि के संस्कृत ग्रन्थ 'एकीभाव स्तोत्र' का हिन्दी भावानुवाद है। इसके अलावा 'जीनवाणी संग्रह' में पांच आरतियां भी संग्रहीत की गई हैं। कवि ने बहुत से पदों में उस समय के आगरे की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का भी उल्लेख किया है। 'समाधि मरण, धर्मपचीसी, अध्यात्म पंचासिका, पद संग्रहों का विवरण भी प्रेमसागर जी ने दिया है, जबकि कामताप्रसाद जी ने संक्षेप में तीन कृतियों के विषय में ही बताया है।
__संवत् 1762 में गोवर्द्धनदास जी ने 'शकुन-विचार' नामक शास्त्र की रचना अपने गुरु लक्ष्मीचन्द्र जी की प्रेरणा से किया था। यह सगुन सम्बंधी छोटा-सा लेकिन उपयोगी ग्रन्थ है।
सांगानेर निवासी किशनसिंह ने सं० 1784 में 'क्रियाकोष' नामक छन्दोबद्ध ग्रन्थ बनाया, जो साधारण कवियों से युक्त स्वतंत्र रचना है। 'भद्रबाहुचरित्र' और रात्रि-भोजन-कथा' भी आपकी ही रचनाएं हैं।
__पाण्डे रूपचन्द जी से भिन्न रूपचन्द जी ने सं० 1798 में बनारसीदास कृत 'नाटक-समय-सार' की टीका लिखी थी, जो बहुत ही सुन्दर और विशद है। दौलमराम जी ने सं० 1796 में 'हरिवंश पुराण' और 'क्रिया कोष' नामक ग्रन्थ रचा था। रायमल्ल जी नामक धर्मात्मा की प्रेरणा से दौलतराम जी ने 'आदि पुराण', 'पद्मपुराण' और 'हरिवंश पुराण' की गद्य में वचनिकाएं लिखी थी। प्रेमी जी लिखते हैं-इन ग्रन्थों का भाषानुवाद हो जाने से सचमुच ही जैन समाज को बहुत ही लाभ हुआ है। जैन-धर्म की रक्षा होने में इन ग्रन्थों से बहुत सहायता मिली है। ये ग्रन्थ बहुत बड़े-बड़े हैं। वचनिका बहुत सरल है। केवल हिन्दी भाषा-भाषी प्रान्तों में ही नहीं, गुजरात और दक्षिण में भी ये ग्रन्थ पढ़े
और समझे जाते हैं। इनकी भाषा में ढूंढारीपन है, तो भी वह समझ ली जाती है।" उनके द्वारा की गई श्री योईन्दु के 'परमात्म प्रकाश' की टीका के विषय में डा. ए. एन. उपाध्ये ने लिखा है कि-"इस बात को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि इस हिन्दी-अनुवाद के ही कारण जोईन्दु और उसके 'परमात्म-प्रकाश' को इतनी ख्याति मिली है।" उन्होंने 'अध्यात्म-बारहखडी' नामक सुन्दर मौलिक कृति का भी सर्जन किया है, जिसमें उनकी काव्य-प्रतिभा का दर्शन होता है। उनका गद्य हिन्दी-साहित्य की अमूल निधि है। भिन्न-भिन्न 1. द्रष्टव्य-प्रेमसागर जी-हिन्दी जैन साहित्यकार और कवि, पृ॰ 284.