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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका
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चरखा चलता नांहि, चरखा हुआ पुराना॥ टेक ॥ पग खूटे दूय हालन लूणे, उर मदरा खखराना। + + +
+ मोटा नहीं काल कर भाई कर अपना सुरझेरा अंत आग में ईंधन होगा, भूधर समझ सवेरा।
धानतराय जी भी भूधरदास जी की तरह प्रसिद्ध जैन भक्त एवं मुक्तककार हैं। उनका स्थान भी हिन्दी जैन साहित्य में काफी ऊंचा है। उनके पद साहित्य का महत्व न केवल इसी शती में बल्कि पूरे जैन साहित्य में है। उन्होंने भक्ति, पूजा सम्बंधी पदों की काफी रचना की है। उनके रचे हुए स्तवन, सज्जाय, पद, आरती-पूजा, आज भी जैन जगत में प्यार और आदर से पढ़े जाते हैं। उनके समय में आगरे में 'मानसिंह जी की शैली' का काफी प्रचार था। कवि ने इससे खूब लाभ उठाया। पं० बिहारीदास जी और पं० मानसिंह जी के (प्रभाव) आग्रह से वे जैन धर्म के प्रति श्रद्धालु हुए थे। जैन दर्शन का भी कवि ने बाद में गहरा अभ्यास किया। बहुत सारे वर्ष जैन धर्म को समझने के पीछे लगा दिये। उनके समस्त पदों का संग्रह 'धर्म विलास' नामक ग्रन्थ में है जो सं० 1780 में समाप्त किया गया था। इस ग्रन्थ में उनके पदों की संख्या 323 है। कवि की यह विशेष प्रतिभा शक्ति ही समझी जानी चाहिए कि कठिन विषयों को भी वे सरलता एवं सहृदयता से समझा सकते थे। “शायद यही सबसे पहले कवि हैं, जिन्होंने हिन्दी में अनेक पूजाएं रची और भक्तिनाद-दासोऽहम्' भावना का बीज सोऽहम् भावना रूपी अध्यात्म फल की प्राप्ति हेतु जैन साहित्य में डाला था।"' एक उदाहरण प्रस्तुत है
जिन्दगी सहल में नाहक धरम खोवें, जाहिर जहान दीखें, ख्वाब का तमासा है कबीले के खातिर तूं काम बद करता है, अपना मुलक छोड़ हाथ लिये कांसा है।
'धर्मविलास' जैसे सुपाठ्य और काव्य-कला से पूर्ण ग्रन्थ रचकर भी कवि अपनी निरीहता या लघुता का किन सुन्दर शब्दों में वर्णन करते हैं
अच्छर खेती तुक भई, तुक सो हुए छन्द छन्दन सो आगम भयो, आगम अरथ सुछन्द। . आगम अरथ सुछंद हमनें नहि किना,
गंगा का जल लेय अरध गंगा को दिन्हा। 1. कामताप्रसाद जैन : हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 176.