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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
है। उपदेश दोहा शतक' की रचना वि० सं० 1725 में की गई है। इसमें कवि बाह्य संसार में ईश्वर को ढूंढने की अपेक्षा अपने घट में ही ढूंढने को कहते हैं
गैर ठोर सौघत फिरा, काहे अंघ अबेव। तेरे ही घट में बसो, सदा निरंजन देव॥ कोटि जनम लौ तप तपै, मन वचन काय समेत। सुद्धातम अनुभो बिना क्यों पावे सिवषेत॥
डा. प्रेमसागर जी का कथन है कि-वे अपने समय में विद्वान और कवि दोनों ही रूपों में प्रसिद्ध थे। उनकी कविताओं पर स्पष्ट रूप से 'वाणारसियासम्प्रदाय' का प्रभाव था।
आचार्य ललित कीर्ति ने सं० 1783 में 'बिनगुणसंपति व्रतकथा' और 'अष्टकंधमारि' नामक रचे थे। जिनमें प्रभु पूजा का वर्णन किया गया है। यथा
रतन जटित कंचन की जारि, गंगा जमुना भरी नीर। धार देऊं जिनवर के आगे, अधमल रहई न बीर। जिनपर चरण जुग पूजिये हो,
अहो अविज्ञानी पूजित सिवपुर जोई॥ आचार्य सुखभूषण जी ने 'श्रुतपंचमी कथा' सं० 1757 में तथा भगतराम जी ने 'आदित्यवार कथा' सं० 1765 में रची थी। सं० 1732 में शिरोमणीदास जी ने 'धर्मसार' नामक ग्रन्थ की रचना की थी, जिसकी कविताएं साधारण होने पर भी स्वतंत्र रचना होने से इसका महत्व है। प्रेमी जी ने इसमें 763 चौपाई बाताई है। इसके अतिरिक्त 'सिद्धान्त-शिरोमणी' नामक एक और छोटा सा ग्रन्थ भी रचा है। कवि मंगल कृत 'कर्म विपाक' नामक रचना और कवि संतलाल का रचा हुआ 'सिद्धचक्र पाठ' भी इसी शती में मिलता है।
सं० 1745 में कवि रतन कृत 'सामुद्रिक-शास्त्र' हिन्दी में लिखा हुआ ग्रन्थ है। भाषा बहुत अशुद्ध होने पर भी अपने विषय की यह अच्छी रचना है।
___ जगतराम तथा जगतराय इस शताब्दि के महत्वपूर्ण कवि और विद्वान है। उनकी अनेक रचनाएं बताई जाती हैं। वे औरंगजेब के दरबार में उच्च स्थान पर स्थित थे और उनको राजा की पदवी मिली थी। इसीलिए शायद लोग उन्हें जगतराम के बदले 'जगतराय' कहते थे। वे स्वयं राजा थे किन्तु अहंकार नाम मात्र को भी नहीं था, उन्होंने अनेक कवियों को उदारतापूर्वक आश्रय दिया, उनमें एक काशीदास भी थे। डा. ज्योतिप्रसाद जैन के कथनानुसार यह संभव 1. डा. प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 295.