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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका
नगर मांहि ते देहरा धना, कई जेन कई सिवतणा। मांहि विराजे जिनवर देव, भवियण सारे नित प्रति सेव॥
इसमें कवि ने राजा गजसिंह एवं श्रेष्ठि पुत्री गुणमाला की सुन्दर कथा प्रस्तु वर्णित करके अच्छा चरित्र-चित्रण किया है।
जोधपुर के महाराजा जसवंत जी के दीवान नेणसीमूता के मारवाड़ी भाषा मिश्रित हिन्दी में राजस्थान विशद इतिहास 'नेणसी मूतारीख्यान' नाम से लिखा है, जिसको लिखने में 6 साल अर्थात् सं० 1716 से 1722 तक लगे थे। मूतानेणसी इस ग्रन्थ को लिखकर जैन समाज के विद्वानों का एक कलंक धो गये हैं कि ये देश के सार्वजनिक कार्यों से अपेक्षा रखते है।" प्रेमी जी का यह कथन सर्वतोचित है।
देवब्रह्मचारी कृत 'श्री सम्मेद शिखर विलास' की रचना इसी काल में उपलब्ध होती है। उसी प्रकार उन्होंने सं० 1734 में देवकृत ‘परमात्मप्रकाश' की भाषा टीका भी लिखी थी।
भट्टारक विश्वभूषण की सं० 1738 के समय की दो प्रमुख रचनाएं उपलब्ध होती हैं-'अष्टान्हिका कथा' और जिनदत्त चरित्र। इनके अलावा फुटकल पदों की रचना भी की थी। एक उदाहरण देखिए
कैसे देहं कर्मनि षोटि। आपही में कर्म बांधो, क्यों करि ठारो तोरि॥ देव गुरु श्रुत करी निन्दा, गहि मिथ्या डोरि, कर णिसुदिन विषचरचा, रह्यो संजयु बोरि॥2॥
'ढाई द्विपका पाठ' और 'बिनमत खीचरी' नामक कृति भी उनकी रची हुई है। प्रायः सं० 1703 से 1730 तक में इस शती के प्रारंभ में-पाण्डे हेमराज जी नामक विद्वान एवं उत्तमकोटि के कवि हुए। उन्होंने प्रवचनसार, परमात्म प्रकाश, गोम्मट सार, पंचास्तिकाय, एवं नयचक्र की टीका लिखीं। उन सभी में उनके स्वस्थ गद्य का 'नयचक्र' में दर्शन होता है। संस्कृत और प्राकृत के विद्वान होने पर भी उन्होंने हिन्दी में ही लिखा। गद्य लेखक और कवि दोनों रूपों में वे प्रतिष्ठित एवं सफल रहे हैं। कुंवरपाल के आग्रह के उन्होंने 'सितपट चौरासी बोल' को रचा। मानतुंगाचार्य के 'भक्तामर' का सुन्दर पद्यानुवाद किया। अनुवाद होते हुए भी उसमें मौलिक काव्य की सरसता है। उनकी पुत्री 'बेती' या बेतुल दे पिता की तरह की विद्वान थी, जिन्होंने कवि बुलाकीदास को जन्म दिया, जो मां एवं नाना की तरह कवि हुए थे। उनकी स्वतंत्र रचनाओं में 'उपदेश दोहा शतक', 'हितोपदेश बावनी', नेमिराजमती जखड़ा और 'रोहिणीव्रतकथा' प्रसिद्ध