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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य अनुपात से 55 वर्ष की आयु आधी कहलायेगी, इसलिए 'अर्द्ध-कथानक' नाम उचित प्रतीत होता है। इस कृति के विषय में पहले थोड़ा बहुत लिखा जा चुका है। पं० बनारसीदास चतुर्वेदी ने इस ग्रन्थ की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा है कि-'कविवर बनारसीदास का दृष्टिकोण आधुनिक आत्मचरित लेखकों के दृष्टिकोण से मिलता जुलता है। अपने चारित्रिक दोषों पर उन्होंने पर्दा नहीं डाला है, बल्कि उनका विवरण इस खूबी के साथ दिया है, मानों कोई वैज्ञानिक तटस्थ वृत्ति से कोई विश्लेषण कर रहा हो। कविवर बनारसीदास जी आत्मचरित लिखने में सफल हुए इसके कई कारण हैं, उनमें एक तो यह है कि उनके जीवन की घटनाएं इतनी वैचित्र्यपूर्ण है कि उनका यथाविधि वर्णन ही उनकी मनोरंजकता की गारंटी बन सकता है। और दूसरा कारण यह है कि कविवर में हास्य रस की प्रवृत्ति अच्छी मात्रा में पाई जाती है। अपना मजाक उड़ाने का कोई मौका वे नहीं छोड़ना चाहते। सबसे बड़ी खूबी इस आत्म चरित की यह है कि वह तीन सौ वर्ष पहले का साधारण भारतीय जीवन ज्यों का त्यों उपस्थित कर देता है। प्रेमी जी लिखते हैं-'इसमें कवि ने अपने गुणों के साथ-साथ दोषों का भी उद्घाटन किया है और सर्वत्र सच्चाई से काम लिया है। इस ग्रन्थ की भाषा के विषय में स्वयं कवि ने कहा है कि 'वह मध्यदेश की बोली में लिखा जायेगा, 'मध्यदेश की बोली बोधि, गर्भित बात कही हिय सोलि।' 675 दोहा, चौपाई में यह आत्मकथा लिखी गई है। अर्द्ध-कथानक से स्पष्ट है कि कवि के जीवन में सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे अच्छाई और बुराई का विश्लेषण करते हुए जीवन को अच्छाई की ओर बढ़ाते ही गये। वे किसी एक रीति, की रिवाज या परम्परा से चिपके न रहे थे। पं. चतुर्वेदी जी ने उचित ही लिखा है कि-"अपने को तटस्थ रखकर अपने सत्कर्मों तथा दुष्कर्मों पर दृष्टि डालना, उनको विवेक की तराजू पर बावन तोले पाव रत्ती तोलना सचमुच एक महान कलापूर्ण कार्य है। डा. माताप्रसाद गुप्त का कथन है-'कभी-कभी यह देखा जाता है कि आत्मकथा लिखनेवाले अपने चरित्र के कालिमापूर्ण अंशों पर एक आवरण सा डाल देते हैं, यदि उन्हें सर्वथा बहिष्कृत नहीं करते, किन्तु यह दोष प्रस्तुत लेखक में बिल्कुल नहीं है। 5. मोह-विवेक-बुद्धि : इसमें 110 पद्य हैं और दोहा-चौपाई छन्द का प्रयोग लिखा गया है। 1. पं. बनारसीदास चतुर्वेदी-अर्द्धकथानक की भूमिका, पृ. 2, 3. 2. पं. नाथूराम प्रेमी-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 22. 3. पं. बनारसीदास चतुर्वेदी-हिन्दी का प्रथम आत्मचरित, अनेकान्त, वर्ष 5, पृ. 21. 4. माताप्रसाद गुप्त-अर्द्धकथानक, आवृत्ति प्रयाग, भूमिका, पृ. 14.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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