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________________ आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका 49 इसकी अनेकानेक हस्तलिखित प्रतियां प्राचीन भण्डारों से प्राप्त होती हैं। इसमें आध्यात्मिक चर्चा एवं भक्ति सम्बंधी पद मिलते हैं। जिन भक्ति की प्रसंशा करते हुए कवि कहते हैं श्री जिन भक्ति सुदृढ़ जहां, सदैव मुनिवर संग। कहै क्रोध तहां में नहीं, लखो सुआतम रंग। अविभा चारिणी जिन भगति, आतम अंग सहाय। कहें काम ऐसी जहां, मेरी तहां न बसाव। यह उनकी प्रारंभिक रचना हो ऐसा प्रतीत होता है। वैसे इस कृति के अंतिम तीन पदों में बनारसी का नाम दिया हुआ है लेकिन प्रेमी जी इसे अन्य बनारसीदास नामक कवि की रचना मानते हैं। इस कृति के विषय में ठोस निर्णय नहीं हुआ है कि यह उनकी ही प्रारंभिक कृति होगी। 6. मांझा : यह रचना जयपुर के बुधीचन्द जी के मंदिर गुटका नं. 28 में निबद्ध है। इसमें 13 पद्य हैं।' इनकी समग्र कृतियों के काव्यत्व में यही कहा जायेगा कि-'उनकी रचनाओं में रस-प्रवाह है और गतिशीलता भी। जीवन्त भाषा और स्वाभाविक भावोन्मेष उनका मुख्य गुण है। मनरामजी 17वीं शती के उत्तरार्द्ध में हो गये थे और बनारसीदास जी के समकालीन कवि थे। उन्होंने बनारसीदास का नाम श्रद्धापूर्वक लिया है। बनारसीदास की भांति आध्यात्मिक रस से ओत-प्रोत उनकी कविता है। इनकी कविता में खड़ी बोली के शब्दों का प्रयोग बहुतायत से मिलता हैं, उस पर से लगता है कि वे मेरठ के आसपास के होंगे। उनकी रचनाओं में संस्कृत भाषा के शब्दों का प्रभाव भी लक्षित होता है। 'मनराम विलास' उनकी प्रमुख रचना है। दोहा, सवैया और कवित्त छन्दों में यह सुभाषित काव्य संग्रह लिखा गया है। प्रारंभ में पंचपरमेष्ठि को भक्तिभावपूर्वक नमस्कार करते हुए कवि लिखते करमादिक अरिन को हरे अरहंतनाम, सिद्ध करे काज सब सिद्ध हो भजत है। सुगुन गुन आचरण बाकी संग, आचारण भगति बसत जाके मन है। 1. डा. प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 193. 2. वही, पृ. 182.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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