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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य सर्वश्रेष्ठ समझते हैं। यही क्यों, हमारा तो ख्याल है कि जैनों में इनसे अच्छा कोई कवि हुआ ही नहीं। ये आगरे के रहने वाले श्रीमाल वेश्य थे। इनका जन्मा माघसुदी 11 सं० 1643 को जोनपुर नगर में हुआ था। इनके पिता का नाम अगरसैन था। वे बड़े ही प्रतिभाशाली कवि थे। अपने समय के ये सुधारक थे। पहले श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी थे, पीछे दिगम्बर संप्रदाय में सम्मिलित हो गये थे, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि इनके विचारों से साधारण लोगों के विचारों का मेल नहीं खाता था। वे अध्यात्मी और वेदान्ती थे। क्रियाकाण्ड को ये बहुत महत्व नहीं देते थे। इसी कारण बहुत से लोग उनके विरुद्ध हो गये थे।' बनारसीदास आगरे में अपने साथियों के साथ अध्यात्म की चर्चा निरन्तर करते रहते थे क्योंकि इस समय आगरा अध्यात्म रसिक विद्वानों का केन्द्र था। पाण्डे रूपचन्द जी भी वहीं रहते थे और कवि के अभिन्न मित्र थे। बनारसीदास की सभी फुटकर रचनाओं का संग्रह 'बनारसी विलास' नाम से सं० 1701 में किया गया था। कवि बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। बचपन से ही प्रतिभा संपन्न होने से 14 वर्ष की छोटी आयु में ही 'नवरस-ग्रन्थ' बना डाला था। इसके अतिरिक्त वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत एवं अरबी-फारसी भी जानते थे। उनकी प्रतिभा के विषय में अनेक किवदंतियाँ प्रचलित हैं। जिनमें एक सम्राट जहांगीर एवं गोस्वामी तुलसीदास से उनकी भेंट की भी है। वैसे समकालीन होने से भेंट की संभावना भी बनी रहती है, लेकिन जब तक प्रमाण न मिले तब तक किवदंती ही समझना उचित है। उसी प्रकार सन्त कवि सुन्दर दास जी से भी उनकी मुलाकात की कथा मिलती है। जो हो, इतना अवश्य है कि बनारसीदास जी उच्च कवित्व शक्तिवाले बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न एवं सुधारक विचार के सहृदयी कवि थे। उनके विषय में सब कुछ लिखा जाय तो एक अलग प्रकरण ही हो जायें। अतः स्थल-संकोच के कारण उनकी प्रमुख कृतियों का उल्लेख कर देना उपयुक्त होगा। जन्मजात प्रतिभा शक्ति वाले इस कवि ने 14 वर्ष की अल्पायु में प्रथम रचना 'नवरसपदावली' का सर्जन किया, जिसमें शृंगार रस की अधिकता देखकर गोमती के प्रवाह में बहा दी। इसमें एक हजार दोहा-चोपाई लिखे गये थे। इसके पश्चात् उन्होंने जो प्रौढ़ रचनाएं लिखीं, वे साहित्य और धर्म के लिए बड़ी महत्व की है। ये कृतियां निम्नलिखित हैं1. नाममाला : ___175 दोहों का छोटा-सा शब्द कोष है, जो उन्होंने सं० 1670 में जौनपुर 1. पं. नाथूराम प्रेमी-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ॰ 38.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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