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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
तुम दासनि मन हरषा, चंदा जम चकोराजी। राज-रिघि मांजऊ नाहि, भवि भवि दरसन तोराजी॥
देवकलश कृत 'कृषदत्ता चरित्र' इस शताब्दी की एक सुन्दर रचना है। 17वीं शताब्दी में बहुत से जैन कवियों की रचनाएं प्राप्त होती है। इनमें ब्रह्मरायमल्ल जी का 'हनूमन्तचरित्र' सं० 1616 का प्रमुख है। इस शताब्दी का महत्व पूरे हिन्दी साहित्य के इतिहास में रेखांकित है। 17वीं शताब्दी तक ऐसे कवि मौजूद थे, जो अपभ्रंश मिश्रित हिन्दी में रचना करते थे। वैसे इस समय ब्रज, अवधी लोक बोली ही साहित्यिक भाषा का रूप ले चुकी थी। 'भक्तामर' कथा और 'सीताचरत्रि' भी इन्हीं ब्रह्मरायमल्ल की रचना है। इसी शती में कविवर बनारसीदास जैसे शुद्ध हिन्दी में उत्तमोत्तम रचनाएं करने वाले पैदा हुए थे। रायमल्ल जी की रचनाएं साधारण एवं मिश्र भाषा की है। कवि ब्रह्मगुलाल ने 'कृपण बगामन कथा' नामक रोचक कथानक युक्त ग्रन्थ लिखा है। इसकी भाषा साफ-सुथरी हिन्दी है-'कुमति विभंजन सुमति करन, दुरित दलन गुणमाल। सुमतिनाथ जिन चरण को सेवहु ब्रह्मगुलाल।।' यह ग्रन्थ ब्रह्म गुलाल जी ने जितेन्द्र की मूर्ति पूजा और मुनियों को आहार-दान देने की पुष्टि में रचा था। इसकी प्रशस्ति निम्न प्रकार है
'सुनहु कथा तुम भव्य महान, जाहि सुने मन बाई ज्ञान। कृपन अगावन याको नाऊ, पडे गुणे ताकि बलि जाऊ॥
ब्रह्मगुलाल जी के रचे हुए अन्य ग्रन्थों का उल्लेख कामताप्रसाद ने नहीं किया है, लेकिन डा० प्रेमसागर जैन ने उनकी अन्य प्रमुख रचनाओं में 'त्रेपन-क्रिया', 'धर्मस्वरूप' 'समवशरण स्तोत्र', 'बल गायन क्रिया', और 'विवेक-चउपई' का उल्लेख किया है। इसी शताब्दी में (सं० 1642) पाण्डे बिनदास के रचे हुए दो ग्रन्थ 'अम्बू चरित्र' और 'ज्ञान पूर्वोदय' के अतिरिक्त फुटकर पद भी उपलब्ध हैं। मुनि कणयंवर विरचित 'एकादश प्रतिभा' नामक रचना इसी काल में उपलब्ध होती है, जिसकी भाषा में अपभ्रंश का प्रभाव विशेष लक्षित होता है। भाव देव सूरि के शिष्य मालदेव ने सं० 1652 में 'पुरन्दर कुमार चउपई' और 'भोजप्रबन्ध' लिखा था, जो दोनों ग्रन्थ मुनि जिनविजय जी के (जैन प्रशस्ति संग्रह, सिन्धी जैन माल के संपादक) पास सुरक्षित थे। मुनि जी ने इसे हिन्दी की अच्छी और ललित रचना बताई है। इनकी रचना में प्रसाद गुण प्रमुखतः है। बसंत-ऋतु का सुन्दर वर्णन उन्होंने किया है
.. 1. डा. प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृ॰ 149.