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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका
मंजरि मुख सुधकारसु, लेउ आयउ जनुपुत्र। जहि सिसिर विधिना दियऊ अब वसन्त सिरिछत्र॥ वा श्री वन फूले सकल, कुसुमावास सहकार। ऋतु वसन्त आगम भयउ, पिक बोले जयकार॥
पं. नाथूराम जी ने 'भोजप्रबंध' के सम्बंध में लिखा है, 'इसकी भाषा प्रौढ़ है, परन्तु उसमें गुजराती की झलक है और अपभ्रंश शब्दों की अधिकता है। वह ऐसी साफ नहीं है, जैसी उस समय के बनारसीदास जी आदि कवियों ही है। कारण कवि गुजरात और राजपूताने की बोलियों से अधिक परिचित था। वह प्रतिभाशाली जान पड़ता है।'
श्री भगवतीदास जी की रचनाएं-सं० 1680 में लिखे हुए गुटके में जो दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर, मैनपुरी के शास्त्र भण्डार से प्राप्त होती है। यह भगवती दास प्रसिद्ध दार्शनकि भैया भगवतीदास से पृथक है और इन्होंने करीब 20, 21 ग्रन्थ लिखे हैं, जिनमें प्रमुख ये हैं-बनजारा, कंडाणा-रास, आदित्य व्रत-रासा, पखवाड़े का रास, दसलक्षणी रासा, खीचड़ी रासा, आदिनाथ-शांतिनाथ बिनति सुगन्ध-दसमी कथा, समाधि-रास, आदित्य वार-कथा, योगीरासा, रोहिणी व्रतरास, राजमती नेमिसुर और सज्ञानी इमाल नाम रचनाएँ मुख्यतः है। इनकी भाषा अपभ्रंश युक्त हिन्दी है। 'कवि भगवतीदास की कविता में आकर्षण है, वह जन-साधारण के मन को मोहनेवाली है और उन्हें अध्यात्म-रस का पान कराती है। काम-शत्रु को जीतने के लिए वह खूब कहते हैं
जगमहिं जीवनु सपना, मन मनमथ, परहरिये। लोह-कोह-मय-माया, तजि भवसागर तरिये।'
इनकी सभी रचनाएं जनहित को दृष्टि में रखकर लिखी गई है। जगभूषण गुरु के शिष्य कवि सालिवाहन ने सं० 1695 में आगरे में 'हरिवंश पुराण' की रचना की थी, जो संस्कृत के श्री विनयेनाचार्य कृत 'हरिवंश पुराण' का पद्यानुवाद है, ऐसा कवि ने स्वयं स्वीकारा है। कविता साधारण है, लेकिन कवि ने इसमें एक जगह हिन्दी को 'देवगिरा' कहकर सम्बोधित किया है, जिससे प्रतीत होता है कि उस समय आगरे में हिन्दी पूज्य भाव से देखी जाती होगी।
पाण्डे हरिकृष्ण जी मुनि विनयसागर के शिष्य थे और उन्होंने 'चतुर्दशी-व्रत कथा' सं० 1699 में रची थी। इनकी और भी रचनाएं उपलब्ध होती है। सं० 1666 में पं० बनवारीलाल जी ने 'भविष्यदत्त चरित्र' की रचना की थी, जो 1. आ. कामताप्रसाद जैन-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 102.