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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका
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नामक वैदक के ग्रन्थ में पद्य के बीच-बीच में गद्य का प्रयोग अवश्य उपलब्ध होता है।' 'आराधना' नामक ताड़पत्रीय रचना में भी अपभ्रंश गद्य का प्रयोग उपलब्ध होता है। इसी प्रकार 'अतिचार' नामक कृति में भी अपभ्रंश गद्य का रूप निहित है।
'काल बेला पठयं विनयहिणु, बहुमान हीणु, उपधान हिणु, गुरु निष्ण्व अनेरा कण्हई पइयं।' 13वीं शती के अंत में गद्य का रूप इस प्रकार भी मिलता है-'परिलउ त्रिकालु अतीत अनागत वर्तमान बहतरी तीर्थंकर सर्व पाप क्षयंकर हऊ नमस्काराऊ। ऐसे गद्य में हिन्दी का प्रचीन रूप दृष्टिगत होता है। गद्य के विकास क्रम के लिए भी हिन्दी जैन साहित्य महत्व रखता है। आधुनिक गद्य का पूर्वकालिक रूप जैन-साहित्य में अक्षुण्ण रूप से देखा जाता है। इसीलिए हिन्दी के साथ गुजराती भाषा की उत्पत्ति के लिए भी जैन-साहित्य का अध्ययन महत्वपूर्ण है।
आदिकाल में रचे गये ग्रन्थों में चरित काव्यों का परिमाण अधिक है, जबकि सैद्धांतिक ग्रन्थ, पूजा-भजन तथा स्तुति के पद अल्प प्रमाण में मिलते है। पद्य-भजन मध्यकाल में अधिक रचे गये। आदिकालीन प्रबन्ध-काव्यों में चरित्र-चित्रण, वर्णन रूप कथा-प्रवाह प्रमुख रहता था। इनके बीच-बीच में तात्विक चर्चा भी आ जाने से स्वतंत्र तात्विक ग्रन्थों की आवश्यकता कम रही। सुभाषित ग्रन्थ थोड़े-बहुत अवश्य लिखे गये। चरित-ग्रन्थों में साधारण जनता की रस वृत्ति तृप्त होने के साथ आध्यात्मिक आनंद भी प्राप्त होने से दोनों हेतु सिद्ध होते थे। आधुनिक युग में जब सामान्य जनता में ज्ञान-पिपासा जागृत हुई तो ऐसे तात्विक ग्रन्थों की आवश्यकता महसूस होने से आधुनिक जैन साहित्यकारों ने संस्कृत-प्राकृत के ऐसे ग्रन्थों का हिन्दी में सुन्दर भावानुवाद कर इसकी क्षतिपूर्ति कर दी। इस प्रकार आदिकाल के रासाग्रन्थ, भाषा के परिवर्तित रूप तथा अन्य सामान्य विवरण प्रस्तुत करने का हेतु होने से अपभ्रंश तथा प्राचीन हिन्दी के प्रबन्ध काव्यों एवं कवियों का विस्तृत परिचय यहां नहीं दिया गया है। हिन्दी-जैन-साहित्य का मध्यकाल (15वीं शती से 17वीं शती तक):
___ मध्यकाल में मुस्लिम शासन के स्थिर हो जाने से राजकीय अशांति की स्थिति समाप्त हुई। यह शांति हार्दिक रूप से व्यक्त न होकर, बल्कि सत्ता की दृढ़ता से प्रसून हुई थी। मुस्लिम सत्ता की स्थिरता ने राजकीय, धार्मिक एवं 1. द्रष्टव्य-कामताप्रसाद जैन-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 58. 2. द्रष्टव्य-मोहनलाल देसाई-प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह, पृ. 26.