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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका
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____ 12 वीं शताब्दी के मुनि योगचन्द्र जी के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'दोहासार' (यह 'योगसार' नाम से भी प्रसिद्ध है)' की भाषा पुरानी हिन्दी के अत्यन्त निकट है। यह उद्धरण देखिए
'अजर अमर गुण-गण निलय अ अहि अप्प थिर थाई। सो कम्म हि ण च अंथयऊ संच्चिय पूव्य पिलाई॥
इन्हीं का 'दोहापाहुउ' भी पुरानी हिन्दी मिश्रित अपभ्रंश की सुन्दर रचना है। योगचन्द्र जी इस काल के बहुत बड़े विद्वान् और अध्यात्म रस के रसिक मुनि थे। 'परमात्म प्रकाश', 'निजात्माष्टक' और 'अमृता नीति' नाम अन्य ग्रन्थों का भी उन्होंने सृजन किया है। 11 और 12वीं शती के कवियों की रचनाओं में प्रायः अपभ्रंश भाषा में प्राचीन हिन्दी के शब्द बहुतायत से मिल जाते है।
13वीं शताब्दी की रचनाओं में कवि लक्खण कृत 'अणुनय रयण-पईव' और मुनि यशः कीर्ति रचित 'जगतसुन्दरी प्रयोगमाला' ग्रन्थ उल्लेखनीय है। प्रथम में जैन श्रावक के व्रतों का निरूपण है तथा दूसरे में वैद्यक के विषय की उपयोगी जानकारी है। श्री विनयचन्द्र कृत 'उवस्समाला-कहाणय छप्पई' भी इसी शती की उल्लेखनीय रचना है, जो छप्पय छन्द में लिखी गई है। 14वीं शताब्दी की रचनाएं प्रायः शुद्ध अपभ्रंश भाषा की है। कविवर श्रीधर के रचे हुए बहुत से ग्रन्थ इसी काल के हैं जिनमें प्रमुख है-'वद्धमाण चरिउ', 'भविष्यदत्त कथा', चन्द्रप्रभचरिउ' 'शान्तिजिनचिरउ' और 'श्रुतावतार' है। कवि श्री अम्बदेव ने 'संघपति समराससा' की रचना इसी शती में की, जिस पर राजस्थानी भाषा के शब्दों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसी शती के मेरुतुंगाचार्य के संस्कृत ग्रन्थ 'प्रबन्धचिन्तामणि' में प्राचीन हिन्दी के दोहे यत्र-तत्र दिये गये है। नाथूराम 'प्रेमी' ने अपने इतिहास में इन दोहे को उद्धृत करके पुरानी हिन्दी के बताये हैं।
प्राचीन जैन साहित्य ने अपने कलेवर में प्राकृत, अपभ्रंश की विपुल रचनाओं को संजोते हुए प्राचीन हिन्दी की रचनाओं को भी स्वीकार कर पुरानी हिन्दी का रूप भी स्पष्ट किया है। इस पर से हम अपभ्रंश के परिवर्तित रूप को सरलता से जान सकते हैं। इसीलिए तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आदिकाल के साहित्य का महत्व केवल भाषाकीय दृष्टिकोण से जितना महसूस किया, उतना साहित्यिक दृष्टिकोण से नहीं। इस काल में अपभ्रंश की रचनाएं प्राचीन
1. द्रष्टव्य-कामताप्रसाद जैन-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 54. 2. वही, पृ. 55.