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________________ आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका मनोवृत्ति के कारण इनके साथ न्याय नहीं हो सका है।' प्राचीन जैन साहित्य के संदर्भ में आचार्य हजारीप्रसाद जी की विचारधारा प्रायः यही है। वे लिखते हैं कि 'जैन साहित्य में कई रचनाएं ऐसी भी हैं कि जो धार्मिक तो हैं किन्तु उनमें साहित्यिक सरसता बनाये रखने का पूरा प्रयास है। धर्म वहां कवि को केवल प्रेरणा दे रहा है। जिस साहित्य में केवल धार्मिक उपदेश हो, उससे वह साहित्य निश्चित रूप से भिन्न है। जिनमें धर्म भावना प्रेरक शक्ति के रूप में काम कर रही हो और साथ ही हमारी सामान्य मनुष्यता को आन्दोलित, मथित और प्रभावित कर रही हो। इस दृष्टि से अप्रमंश की कई रचनाएं जैन-धर्म भावना से प्रेरित होकर लिखी गई हैं, नि:संदेह उत्तम काव्य हैं। धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश होना काव्यत्व का बाधक नहीं समझा जाना चाहिए। धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक दृष्टि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाने लगा तो तुलसीदास का 'रामचरित मानस' भी साहित्य-क्षेत्र में आलोच्य हो जायेगा। इस प्रकार मेरे विचार से सभी धार्मिक पुस्तकों को साहित्य के इतिहास में त्याज्य नहीं मानना चाहिए। हिन्दी जैन-साहित्य का प्रारंभ : हिन्दी जैन साहित्य का प्रारंभ 10वीं शताब्दी से माना जाता है। 10वीं से 19वीं शताब्दी तक के प्राचीन जैन साहित्य का निरीक्षण करने से पता चलेगा कि इस लम्बी अवधि में उत्कृष्ट और रोचक साहित्यिक ग्रन्थों की रचना प्रचुर मात्रा में की गई है। विशेषकर तीर्थंकरों, आचार्यों और धार्मिक पुरुष-रत्नों के चरित्रों की गुण-स्तुति पर आधारित रचनाएं प्राप्त होती है। संस्कृत, अर्धमागधी और अपभ्रंश के प्राचीन ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद 17वीं, 18वीं और 19वीं शताब्दी में काफी मात्रा में हुआ है, जो कहीं-कहीं अपने मूल सौंदर्य को पाने में थोड़ा-बहुत पीछे रह गया है। 14वीं से 19वीं शती तक ललित साहित्य के साथ-साथ सैद्धांतिक ग्रन्थों की रचना भी विपुल मात्रा में उपलब्ध होती है। 14-15 और 16 वीं शताब्दियों में धुरन्धर जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने स्वयं जैन-सिद्धांतों का आद्योपान्त अध्ययन करके आत्मसात किया, तदनन्तर अपने साहित्य के द्वारा समाज को लाभान्वित करके दायित्व पूर्ण किया। अत: जैन साहित्य में धार्मिक चर्चा या उमदेश आ जायें तो आश्चर्य नहीं मानना चाहिए। जैन धर्म के प्रसार-प्रचार एवं जैन समाज को धर्म के प्रति श्रद्धावान बनाने के उद्देश्य से जैन साहित्यकारों ने विशाल राशि में उच्च कोटिय जैन साहित्य का प्रणयन कर हिन्दी साहित्य के भण्डार की अभिवृद्धि ही की है। इस काल में 1. डा. वासुदेव सिंह-अपभ्रंश और हिंदी में जैन रहस्यवाद-पृ. 22. 2. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी-हिन्दी साहित्य का आदिकाल-पृ. 11, 12.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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