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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान 505 लिखे निबंधों की भाषा अत्यन्त शुद्ध व्याकरण-सम्मत है; वाक्य भी छोटे-छोटे हैं। 'दार्शनिक निबंधों की भाषा गंभीर और संयत है। सरल से सरल वाक्यों में गंभीर विचारों को रख सकते हैं। उदार और उच्च विचार होने के कारण सामाजिक निबंधों में प्राचीन रूढ़ परम्पराओं के प्रति अनास्था की भावना मिलती है। पं. जगमोहनलाल जी सिद्धान्त शास्त्री के आचारात्मक निबंधों में हम सरल और स्पष्ट भाषा-शैली पाते हैं। एक कुशल अध्यापक के समान वे विषय को गहराई में जाकर समझाने की चेष्टा करते हैं। भाषा परिमार्जित होने से शुष्क विषय को भी रोचक व मनोरंजक बना सकने में समर्थ हैं। श्री महात्मा भगवानदीन भी दार्शनिक निबन्धकार हैं, जिनकी भाषा-शैली में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पाया जाता है। निबंधों का विषय भी प्रायः दर्शन व मनोविज्ञान होने से गूढ गंभीर विषय को भी वे सरल छोटे-छोटे वाक्यों में व्यक्त करते हैं। डा. मोहनलाल मेहता की विश्लेषणात्मक भाषा-शैली हमें उनके निबंधों व भूमिका के लेखों में दृष्टिगत होती है-यथा___ 'आचार-और विचार परस्पर सम्बद्ध ही नहीं, एक दूसरे के पूरक भी हैं। संसार में जितनी भी ज्ञान-शाखाएँ हैं, किसी न किसी रूप में आचार अथवा विचार अथवा दोनों से सम्बद्ध हैं। व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए ऐसी ज्ञान-शाखाएँ अनिवार्य हैं, जो विचार का विकास करने के साथ ही साथ आचार को भी गति प्रदान करे। + + + जब तक आचार को विचारों का सहयोग प्राप्त न हो अथवा विचार-आचार रूप में परिणत न हों तब तक जीवन का यथार्थ विकास नहीं हो सकता।" मुनि नथमल जी ने भी दार्शनिक व आचार-विचार विषयक छोटे-छोटे सुन्दर निबन्ध लिखे हैं। कहीं-कहीं उनके निबन्धों में सम्प्रदाय सम्बंधी विचारों की स्पष्टता विशेष देखने को मिलती है, फिर भी गूढ-गम्भीर जैन-दर्शन को उन्होंने अपनी कलम से सरल, शैली में प्रस्तुत करने का प्रशंसनीय कार्य किया है। 'समस्या का पत्थर और बुद्धि की छैनी' में उनकी शैली का लाघव व भाषा की स्पष्टता देखी जा सकती है। आचार्य तुलसी के दार्शनिक लेखों एवं विचारों में गुरु-गंभीरता और शैली की प्रौढ़ता देखी जाती है। बाबू लक्ष्मीचन्द्र जैन कुशल सम्पादक के अतिरिक्त सफल आलोचक व विवेचक भी हैं। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित जैन-साहित्य के ग्रन्थों की 1. नेमिचन्द्र शास्त्री-हिन्दी जैन साहित्य-परिशीलन-भाग-2, पृ. 131. 2. द्रष्टव्य-डा. मोहनलाल मेहता-'जैनाचार' की भूमिका, पृ० 5.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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