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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
लिखे हैं। शायद ही कोई ऐसी जैन-अजैन पत्रिका उनकी प्रतिभा व अध्ययन संपन्न लेखनी की प्रसादी से वंचित-अछूती-रही होगी। श्रीयुत् अगरचन्द जी के साहित्यिक-सांस्कृतिक निबंधों की भाषा-शैली का एक उदाहरण द्रष्टव्य है___ 'प्राकृत भाषा भारत की प्राचीनतम भाषा है। यद्यपि उपलब्ध साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रन्थ 'वेद' माने जाते हैं और उनकी भाषा 'संस्कृत' है। पर जब हम संस्कृत और प्राकृत इन दोनों शब्दों पर विचार करते हैं, तो यह मानने को बाध्य होना पड़ता है कि प्राकृत अर्थात् स्वाभाविक जन-साधारण की भाषा और संस्कृत अर्थात् संस्कार की हुई शिष्टजनों की भाषा। संस्कार तो किसी विद्यमान वस्तु का ही किया जाता है। इसलिए सबसे प्राचीन भाषा का नाम 'प्राकृत' ही हो सकता है। यद्यपि इस भाषा में रचा या लिखा हुआ साहित्य उतना पुराना नहीं प्राप्त होता, पर उसकी मौलिक परम्परा अवश्य ही प्राचीन रही है।
पं० दलसुख भाई मालवणिया जी एक गुजराती-भाषी होने पर भी हिन्दी भाषा, अपभ्रंश-प्राकृत भाषा और उसके साहित्य पर गजब का अधिकार रखते हैं। वे निरन्तर अध्ययन-अध्यापन तथा लेखन-प्रवृत्ति के काम में संन्निष्ठता से संलग्न हैं। जैन धर्म एवं दर्शन के विषय में लिखे हुए उनके निबंधों का बहुत महत्व है। उनके निबंधों में विषय की स्पष्टता सरल शैली में पाई जाती है। आलोचनात्मक दार्शनिक निबंधों में कहीं-कहीं अधिक गंभीरता देखने को मिलती है।
पं. मालवणिया जी की भाषा-शैली का रूप द्रष्टव्य है-'किसी भी सम्प्रदाय विशेष के प्रामाणिक इतिहास को लिखने के लिए उस संप्रदाय के अनुयायी वर्ग द्वारा लिखित सामग्री को भी आधार बनाना परम आवश्यक हो जाता है। केवल विरोधी पक्ष की सामग्री को ही आधार नहीं बनाया जा सकता। परन्तु 'लोकाशाह' के युग से लेकर आज तक किसी भी विद्वान स्थानकवासी मुनि ने अथवा गृहस्थ ने विशुद्ध इतिहास के दृष्टिकोण से कुछ लिखा हो, वह मेरे देखने में नहीं आया। यदि किसी ने कुछ लिखा भी है, तो उसमें प्रशस्ति तथा गुणानुवाद ही अधिक है-इतिहास उसमें नहीं है। अनुसंधान, शोध और खोज की दृष्टि से कुछ भी लिखा नहीं गया।'
पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य के सामायिक समस्याओं और कर्मवाद पर 1. अगरचन्द जी नाहटा-प्राकृत भाषा का एक मात्र आलंकारिक ग्रंथ-अलंकार
दर्पण' पृ. 394-'गुरुदेव श्री रत्नमुनि-स्मृति ग्रंथ-के अन्तर्गत संग्रहीतं 2. द्रष्टव्य-पं० दलसुख मालवणिया-'लोकाशाहा और उनकी विचारधारा' निबंध, पृ.
365-'गुरुदेव की रत्नमूनि-स्मृति ग्रंथ' के अन्तर्गत संग्रहीत।