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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान
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__ हम साम्प्रदायिक चिन्तनों का यह झुकाव रोज. देखते हैं कि वे अपने चिन्तन में तो कितनी ही कमी या अपनी दलीलों में कितना ही लचरपन क्यों न हो उसे प्रायः देख नहीं पाते और दूसरे विरोधी सम्प्रदाय के तत्त्व-चिन्तनों में कितना ही साद्गुण्य और वैश्य क्यों न हो उसे स्वीकार करने में भी हिचकिचाते
पं० शीतलप्रसाद जी दार्शनिक निबंधकारों में मूर्धन्य स्थान पर हैं। उन्होंने निरन्तर कलम चलाई है। जैन दर्शन व आचार-विचार भर काफी लिखा है। यदि वह सब प्रकाशित हो पाता तो जैन साहित्य का भण्डार पर गया होता, लेकिन प्रायः सभी लेख अप्रकाशित हैं। सीधी-सादी भाषा में आपके अभ्यास और अध्ययन का प्रकाश दिया है। दर्शन और इतिहास सम्बन्धी कोई विषय आपकी लेखनी से अछूता रहा नहीं है। उसी प्रकार अपने आध्यात्मिक उपन्यास क्षेत्र में भी कलम चलाई होती तो उस क्षेत्र की श्रीवृद्धि होती, जो आज अत्यन्त क्षीण
पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री के दार्शनिक, आचारात्मक तथा ऐतिहासिक निबंध शिष्ट और संयत भाषा-शैली में लिखे गये हैं। जैन धर्म का इतिहास उन्होंने तीन खंडों में अत्यन्त विद्वतापूर्ण व प्रौढ़ शैली में लिखा है। जैन साहित्य के इतिहास में इसका उल्लेखनीय योगदान कहा जायेगा। आपकी शैली में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की-सी गंभीरता, सरलता, अन्वेषणात्मकता तथा अभिव्यंजना की स्पष्टता समान रूप से है-केवल दोनों के विषय क्षेत्र भिन्न-भिन्न हैं।
पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री के निबंधों की भाषा-शैली में दुरुहता का अभाव है-सरल भाषा में अपने विचारों की वे अभिव्यक्ति करते हैं-यथा-'विचारणीय यह है कि जिन प्राणियों के प्रति हम दया-भाव रखते हैं, वे प्राणी क्यों इस अवस्था को प्राप्त हुए। क्या कभी इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया है। दूसरे शब्दों में संसारी जीव जो नाना गतियों में भ्रमण कर रहा है इसका कारण क्या है? क्यों यह सुख-दुःख का भोजन बनता है? साधारण-सा जानकार भी यही कहेगा कि अपने कर्मों के कारण ही वह भ्रमण करता है।"
पं. अगरचन्द जी श्री नाहटा न केवल हिन्दी साहित्य के बहुश्रुत विद्वान हैं, लेकिन जैन-साहित्य के भी स्तम्भ समान हैं। साहित्य की विविध दिशाओं में विशेष कर कवियों विषयक-खोज पूर्ण निबंध-लेख-काफी विशाल मात्रा में 1. पं. सुखलाल जी-दर्शन और चिन्तन-'बाली-दीक्षा' शीर्षकस्थ निबंध, पृ० 69. 2. द्रष्टव्य-पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री-'सबसे बड़ा पाप-मिथ्यात्व' शीर्षक निबंध, पृ.
1, 'श्रीगणेशप्रसाद वर्णी स्मृति ग्रन्थ' अन्तर्गत।