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________________ 502 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य से-प्रकाशित 'खण्डहरों का वैभव' व 'खोज की पगडंडियाँ' उनके इतिहास और पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण निबंधों का संकलन है, जिनकी भाषा शुद्ध-साहित्यिक एवं परिमार्जित है। ऐतिहासिक निबंधकार प्रो० खुशालचन्द गोरावाला की भाषा बड़ी ही परिमार्जित है। पुष्ट चिन्तन और अन्वेषण को सरल और स्पष्ट रूप में आपने अभिव्यक्त किया है। इतिहास के शुष्क तत्त्वों का स्पष्टीकरण स्वच्छ और बोध- गम्य है। दार्शनिक शैली के श्रेष्ठ निबन्धकार श्री पं० सुखलाल जी संघवी है। एक प्रज्ञा चक्षु गुजराती होने पर भी हिन्दी भाषा व व्याकरण पर उनका संयम आश्चर्यजनक है। निरन्तर देश का पर्यटन करते रहने के कारण उनकी लेखनी से अनुभव की गहराई व विचारों की प्रौढ़ता टपकती ही है। दार्शनिक विषयों को वे अनोखी सरलता एवं प्रामाणिकता से स्पष्ट करते हैं। 'दर्शन और इतिहास दोनों के ही विवेचनों में आपकी तुलनात्मक विवेचन पद्धति का पूरा आभास मिलता है। आपकी शैली में मननशीलता, स्पष्टता, तर्कपटुता और बहुश्रुताभिज्ञता विद्यमान है। दर्शन के कठिन सिद्धान्तों को बड़े ही सरल और रोचक ढंग से आप प्रतिपादित करते हैं। आपके सांस्कृतिक निबंधों का गद्य अत्यन्त प्रौढ़ व परिमार्जित है। भाषा-शैली की अभिव्यंजना में चमत्कार के साथ लाक्षणिकता का गुण सर्वत्र विद्यमान है। आपके सांस्कृतिक निबंध का गद्य अत्यन्त प्रौढ़ व परिमार्जित है। हिन्दी जैन साहित्य उनके जैसे शुद्ध तत्वचिंतक, साहित्यकार एवं बहुश्रुत विद्वान पाकर गौरवान्वित हुआ है। पं० सुखलाल जी की ज्ञान-गंभीर फिर भी सुबोध शैली का एक-दो उदाहरण द्रष्टव्य हैं___'मैं बाल-दीक्षा विरोध के प्रश्न पर व्यापक दृष्टि से सोचता हूँ। उसको केवल जैन-परम्परा तक या किसी एक या दो जैन फिरकों तक सीमित रखकर विचार नहीं करता। क्योंकि बाल-दीक्षा या बाल-संन्यास की वृत्ति एवं प्रवृत्ति करीब-करीब सभी त्याग-प्रधान परम्पराओं में शुरू से आज तक देखी जाती है, खास कर भारतीय सन्यास-प्रधान संस्थाओं में तो इस प्रवृत्ति एवं वृत्ति की जड़ बहुत पुरानी है और इसके बलाबल तथा औचित्यानौचित्य पर हजारों वर्षों से चर्चा-प्रतिचर्चा भी होती आई है। इससे सम्बंध रखने वाला पुराना और नया वाङ्मय व साहित्य भी काफी है।' 1. आ. नेमिचन्द्र शास्त्री-हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन-भाग-2, पृ॰ 128.. 2. पं० सुखलाल जी-दर्शन और चिन्तन-'बाली-दीक्षा' शीर्षकस्थ निबंध, पृ. 38, दर्शन और संप्रदाय-नामक निबंध, पृ० 69.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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