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________________ 472 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य आयेगा।' और सचमुच होता भी ऐसा है। जब भौतिक संघर्षों से मनुष्य आकुल हो उठता है, थक जाता है, तब वह प्रकृति की महत्ता से परिचित होकर उसकी विरामदायिनी गोद में परम शांति पाता है। मृदुता की अक्षय निधि सी प्रकृति उसे अपने सुकोमल अंक में भर लेती है, तब मानव के सम्मुख मानवता का सच्चा स्वरूप प्रकट होता है। पवनंजय को अहिंसक युद्ध के लिए न्याय जिस पक्ष में हो उसकी तरफ से ही लड़कर-चाहे वह अपना विरोधी पक्ष ही क्यों न हो-सदा सत्य का ही समर्थन करने के लिए प्रेरणा देने वाली अंजना के चरित्र द्वारा लेखक ने स्पष्ट किया है कि महायुद्ध की विभीषिका और संहार, अहिंसा और संयम से ही दूर किया जा सकता है। अहिंसा को समझते हुए अन्याय का दमन कर मनुष्य जब पुनः प्रकृति के निकट आता है तो उसे सहज आनंद की प्राप्ति होती है। हर्षातिरेक से 'प्रकृति पुरुष में लीन हो गई, पुरुष प्रकृति में व्यक्त हो उठा।' जिससे प्रकृति की सहज सहायता से मनुष्य का साथ सदा ब्रह्म से बना रहे। महाकवि प्रसाद की 'कामायनी' भी क्या यही संदेश नहीं देती? मनु के अहं को श्रद्धा का विश्वास, प्रेम व समर्पण ही गला सकता है, भौतिकता की दौड़ में हारा-थका पुरुष (मनु) प्रकृति श्रद्धा की प्रेममयी गोद में ही सच्ची शांति प्राप्त करता है, हृदय की उच्चता और चिर आनंद की भूमि पर पहुँच पाता है। आज की व्यस्त मानवता रूपी दानवता के लिए यही मूल मंत्र है। जब मनुष्य विज्ञान के विनाशकारी आविष्कारों का अंचल छोड़कर सृजनमयी प्रकृति को पहचानेगा, तभी उसे भगवान के वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति होगी और विश्व में मानवता की वृद्धि कर सकेगा। लेखक ने मानवता का आदर्श त्याग, संयम और अहिंसा के समन्वय में बतलाया है। औपन्यासिक तत्त्वों की दृष्टि से भी एक दो त्रुटियों के सिवा अन्य सभी रूपों में यह श्रेष्ठ उपन्यास हमें सच्ची मानवता के लिए 'उत्सर्ग' करने की भावना का संदेश देता है। जैन धर्म के 'मिथ्यात्व दर्शन' सिद्धान्त का साहित्यिक ढंग से प्रस्तुतीकरण लेखक का प्रमुख उद्देश्य होने पर भी किंचित ख्याल नहीं जाता कि लेखक जैन धर्म के उपदेशक या विवेचक बन गये हैं। जैन दर्शन में समभाव और समानता का सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि मान-मोह, राग-द्वेष, 'मैं-पर' व अहंकार का त्याग कर सबको समान दृष्टिकोण से शान्त भाव से देखना-समझना चाहिए। यही विचारधारा उन्होंने अंजना के चरित्र की गरिमा व्यक्त करते हुए उसके मुख से व्यक्त की है-'अपने को बहुत मत मानो, क्योंकि यही सारे रोगों की जड़ है। मानना ही तो मान है। मान सीमा है, आत्मा असीम है और
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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