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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान 473 सर्वव्यापी है। निखिल लोका-लोक उसमें समाया है। वस्तु मात्र उसमें है, तुम्हारे ज्ञान में है, बाहर से कुछ पाना नहीं है। बाहर से पाने और अपनाने की कोशिश लोभ है, यहाँ जो अपना है, उसी को खो देना है, उसी को पर बना देता है। मान ने हमें छोटा कर दिया है, जानने-देखने की शक्तियों को मन्द कर दिया है। हम अपने ही में घिरे रहते हैं। इसी से चोट लगती है, दुःख होता है। इसी से राग है, द्वेष है, रगड़ है। सबको अपने में पाओ-भीतर के अनुभव से पाओ। बाहर से गाने की कोशिश माया है, झूठ है, वासना है। उसी को प्रभु ने मिथ्यात्व कहा है। स्वर्ग, नरक मोक्ष सब तुम्हीं में है। उनका होना तुम्हारे ज्ञान पर कायम है। कहा न कि तुम्हारा जीव सत्ता मात्र के प्रमाण है, वह सिमट कर क्षुद्र हो गया है, तुम्हारे 'मैं' के कारण। 'मैं' को मिटाकर 'सब' बन जाओ। जानने देखने की तुम्हारी सबसे बड़ी शक्ति का परिचय इसी में है। कितनी सार्वकालिक व सार्वदेशीय उच्च विचारधारा है, जिसका आचरण यदि जीवन में किया जाय तो जीवन धन्य व सार्थक बन जाय; जीवन आदर्शमय व दृष्टांत रूप हो सकता है। अंजना के आचार व विचार में जैन दर्शन की विचारधारा स्फुट होती है। इस प्रकार न केवल आधुनिक जैन साहित्य के लिए, बल्कि समूचे हिन्दी साहित्य के लिए गौरव समान यह उपन्यास अपने आध्यात्मिक उद्देश्य में पूर्णतः परिपूर्ण होता है। बल्कि भाषा-शैली, भव्य वर्णन, मनोविश्लेषणात्मक चरित्र-चित्रण एवं उत्कृष्ट गद्य-शिल्प विधान की कसौटी पर न केवल सही उतरता है, बल्कि उत्कृष्ट सिद्ध होता है। वीरेन्द्र जी का दूसरा आत्म कथात्मक शैली में लिखा उपन्यास 'अनुत्तर योगी' (4 भागों में) अति समृद्ध ऐतिहासिक औपन्यासिक शैली में लिखा गया है, जो भगवान महावीर के निर्वाण के 2500 वर्ष की स्मृति-निमित्त-सुमन के रूप में हिन्दी जैन साहित्य को भेंट किया गया है। इसमें भी लेखक ने मनोवैज्ञानिक विश्लेषणात्मक शैली, समृद्ध व साहित्यिक वर्णन-परम्परा से पुष्ट आध्यात्मिक चिंतन को सुष्ठु रूप से प्रस्तुत किया है। 'अनुत्तर योगी' में कवि लेखक की गूढ़, सूक्ष्म आध्यात्मिक चेतना का स्वर मानवतावादी परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्त होता है। प्रत्येक पात्र का चारित्रिक विश्लेषण अनूठे रूप से हुआ है। वीरेन्द्र जैन का साहित्य हिन्दी साहित्य के विवेचक-आलोचक या इतिहासकार की दृष्टि में नहीं आ पाया यह निश्चय ही खेद की बात है। अनेक साधारण से साहित्यकारों का परिचय देने में हिन्दी साहित्य का इतिहास गौरव अनुभव करता है, तब हिन्दी जैन साहित्य के अच्छे-अच्छे रसज्ञ-कवि, उपन्यासकार, 1. द्रष्टव्य-मुक्तिदूत-उपन्यास, पृ० 77.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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