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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान 471 मानवता को जिस धर्म, प्रेम और मुक्ति का सन्देश देता है, वह हृदय की अनुभूतियों का प्रतिफल है और इसीलिए उसका प्रतिपादन बहुत ही सीधे और सरल ढंग से हुआ है। लेखक ने बहुत गहरे डूब कर इन आबदार मोतियों का पता लगाया है।" भौतिकता के इस युग में इसके पीछे दौड़ लगाने से आदमी पाकर भी सब कुछ खो बैठता है, तब आध्यात्मिता, धर्म व प्रकृति की गोद में गये बिना कोई चारा ही नहीं है, वह पवनंजय व अंजना के द्वारा स्पष्ट होता है। "आज के युग में दो एकान्त बुद्धिवाद और भावना या हृदयवाद-अहंकार और आत्म समर्पण के भागों में संघर्ष है, वह पवनंजय के चरित्र में सहज ही व्यक्त हुआ है। पवनंजय इस बात का प्रतीक है कि वह यथार्थ को बाहर से सीधे पकड़कर उस पर विजय पाना चाहता है। यही अहंकार उपवसा है-आज का बुद्धिवाद, भौतिकवाद और विज्ञान की अन्य साहसिक वृत्ति (Adventures) इसी 'अहं' के प्रतिफल है। विज्ञान इस अर्थ में प्रत्यक्ष वस्तुवादी है। वह इंन्द्रिय गोचर तथ्य पर विजय पाने को ही प्रकृति विजय मान रहा है। यहीं उसकी पराजय सिद्ध होती है। इसी में से उपजती है हिंसा और महायुद्ध; और यहीं से उत्पन्न होता है निखिल संघातकारी एटमबम" इसके सामने युद्ध की अपेक्षा प्रकृति की गोद में शांति, सहकार व विश्व-प्रेम की महत्ता घोषित करने का उद्देश्य व्यक्त करता है 'मुक्तिदूत' उपन्यास। इसीलिए तो लेखक ने 'आज की दिशा हारा' मानवता को यह कृति समर्पित की है, क्योंकि आज की विकल मानवता के लिए 'मुक्तिदूत' स्वयं 'मुक्तिदूत' है, जिसमें स्पष्ट किया गया है कि अहं, तर्क और युद्ध की कारा से प्रेम, सहिष्णुता एवं समर्पण-त्याग का प्रकाश ही मुक्त करा सकता है। ___'मुक्तिदूत' के भीतर प्रतीक रूप से पात्रों को रखा है। अंजना प्रकृति की प्रतीक है, पवनंजय पुरुष का, उसका अहंभाव माया का और हनूमान ब्रह्म का। आज का मनुष्य अपने अहं के कारण बुद्धिमान और शक्तिशाली समझ कर बुद्धिवाद के बल पर विज्ञान की उत्पत्ति द्वारा प्रकृति पर विजय पाना चाहता है लेकिन हार कर सत्य समझता है कि प्रकृति दुर्जेय है। प्रकृति पर विजय पाना चाहता है लेकिन प्रकृति इसके ऐसे कार्यकलापों से शोकाकुल होकर उपहास-सी करती हुई मानों कहती है-'पुरुष (मनुष्य) सदा नारी (प्रकृति) के निकट बालक है। भटका हुआ बालक अवश्य एक दिन प्रकृति की शरण में लौट 1. मुक्तिदूत-आमुख, पृ. 18. • 2. मुक्तिदूत-प्रस्तावना, पृ. 13.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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