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________________ 464 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य का प्रसार है। दिशाओं की अपार नीलिमा आम्रगण से भी उठी है।' और देखो, कैलास शिखर की सौंदर्य राशि-'देखो न प्रहस्त, कैलास के ये वैडूर्यमणिप्रभ धवलकूट, ये स्वर्ण मंदिरों की ध्वजाएँ, मान-सरोवर की यह रत्नाकर-सी अपार जलराशि, हंस-हंसिनियों के ये मुक्त विहार और दूर-दूर तक चली गई श्वेतांजन पर्वत श्रेणियाँ, क्या इन सबसे भी अधिक सुन्दर है वह विद्याधरी अंजना?' सांझ घनी हो गई है। मान सरोवर के सुदूर जल क्षितिज पर, चांद के सुनहरे बिंब का उदय हो रहा है। उस विशाल जल विस्तार पर हंस-युगलों का क्रीडारव रह-रहकर सुनाई पड़ता है। देवदास भवन और फूल घाटियों की सुगन्ध लेकर वसन्ती वायु होले-होले बह रही है। अपनी ही शोभा में क्षण-क्षण नित-नूतन सुन्दरता के चित्रों से भरा पड़ा है। उसके प्रत्येक पृष्ठ पर प्रकृति उभरती है, अपना पूर्ण भंषर लेकर, किसका वर्णन किया जाय? किसको छोडा जाय? प्रकृति के इस काव्य को स्पंदित-स्फुटित करने के लिए वीरेन्द्र जी ने कौर-कसर नहीं उठा रखा है, फिर भी सब कुछ बिल्कुल सहज है, स्वाभाविक है। 'अनेक मंगल वाद्यों की उछाह भरी रागिणियों से सरोवर का वह विशाल तट-देश गूंज उठा। कैलाश के स्वर्ण-मंदिरों के शिखरों पर जाकर वे ध्वनियाँ प्रतिध्वनित होने लगीं। अनेक तोरण, द्वार, गोपुर, मंडप और कवियों से तटभूमि रमणीय हो उठी है। मानों कोई देवोप्रतिम नगरी ही उतर आई है। स्थान-स्थान पर बालाएं अक्षत-कुंकुम, मुक्ता और हरिद्रा के चौक पूर रही हैं। दोनों राजकुलों की रमणीय मंगलगीत गाती हुई उत्सव के आयोजन में संलग्न हैं। कहीं पूजा-विधान चल रहे हैं तो कहीं हवन-यज्ञ। विपुल उत्सव, नृत्यगान आनंद मंगल से वातावरण चंचल है। आदित्यपुर नगरी का कैसा वर्णन है। 'शरद ऋतु के उजले बादलों से आदित्यपुर के भवन आकाश की पीठिका पर चित्रित है। विस्तीर्ण वृक्ष घटाओं के पार, राज-प्रासाद की रत्न-चूड़ाएँ बाल सूर्य की कान्ति में जगमगा रही हैं। सघन उपवनों और पत्र-सरोवरों की आकुल गन्ध लेकर उन्मादिनी हवा बह रही है। श्यामल तरु राजियों में कहीं अशोक से कुंकुभ झर रहा है, तो कहीं तुच्छ भौरों से केशर और मल्लिकाओं से स्वर्ण रेणु झर रही हैं। अंजना के अंग-अंग एक अपूर्व सुख की पुलकों से सिहर उठते हैं। उसी प्रकार रानी अंजना के 'रत्नकूट प्रासाद' की भव्यता का वर्णन भी अनोखा है। 1. मुक्तिदूत-34, पृ. 4, 5. 2. वीरेन्द्र जैन : मुक्ति दूत, पृ. 16. 3. वही, पृ. 18.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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