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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान
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विशेष है। फिर भी छोटे-छोटे प्रेमपूर्ण सरल वाणी के उदाहरण भी देखे जा सकते हैं-'छिः जीजी, तुम रो रही हो---? अपनी अंजना पर अभिमान नहीं कर सकती? इतनी अवशता क्यों? अंजना अकिंचन है सही, पर उसे दयनीय मत मानो जीजी, उसके भाग्य पर और उसके कर्म पर अविश्वास मत करो। वातावरण :
शब्दों के शिल्पी वीरेन्द्र जैन ने अपने इस महान उपन्यास में प्रकृति के मनोरम एवं भयंकर दोनों रूपों का सजीव और अत्याकर्षक ढंग से चित्रण किया है। प्रकृति के मनोहर, उल्लासकारी, कोमल चपल रूप के साथ बीहड़, दुर्गम, गंभीर, भयानक रूप इस उपन्यास में कदम-कदम, पृष्ठ-पृष्ठ पर दिखाई पड़ते हैं, जो शायद ही किसी उपन्यास में हो। प्रकृति के महाकाव्य की कोटि का उपन्यास इसे माना जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी। पहाड़, नदी, मयूरवन, बीहड़ जंगल, शैलों, मान-सरोवर, दीपों, खाई-खंदक, गुफाओं, बड़े-बड़े सुन्दर बन-उपवन, उद्यानादि प्रकृति चित्रों के वर्णनों के साथ आदित्यपुर के स्फटिक महल, रत्नकूट प्रासाद, अजितंजय प्रासाद, शास्त्रागार, किले, महल के वन-उपवन आदि मनुष्य निर्मित अद्भुत रोमांचकारी, भव्य वर्णनों में मानों जीवन्तता साकार हो उठी है। लेखक ने कहीं कोई कसर नहीं रखी है। कल्पना की ऊँची से ऊँची चोटी से स्पर्श करने वाले भव्य, वर्णनों को बार-बार पढ़ते हुए जी अघाता नहीं, पुनश्चय-पुनश्च हृदय-मन को प्रसन्नता व हार्दिकता से भर देने के लिए मन उत्सुक रहता है। एक-एक शब्द को लेखक ने मानो छैनी से काट-काट कर गढ़ा हो, जो अपनी तमाम शक्तियों के बावजूद भावना के सागर में पाठक को गोता मारने के लिए विवश करता है। स्थलों एवं प्रकृति के आह्लादकारी, मुग्धताप्रेरक वर्णनों के साथ मानव-हृदय का वातावरण भी पूरे उपन्यास में बिखरा पड़ा है, जो उनके भावों को परिस्थितियों के पूरे संघर्ष में प्रस्तुत कर सकते हैं। प्रत्येक पात्र का आंतरिक वातावरण 'कैसा है'? और 'क्यों है?' का 'बहू चित्र खींचने का वीरेन्द्र जी ने सुंदर प्रयत्न किया है। उपन्यास की प्रथम क्ति से ही प्रकृति के रूप सौंदर्य को कृतिकार ने उद्घाटित करना प्रारम्भ कर या है जो अंत तक चलता ही रहा है___ 'वनों में वासन्ती खिली है। चारों ओर कुसुमोत्सव है। पुष्पों के झरते पराग दिशाएं पीली हो चली हैं। दक्षिण पवन देश-देश के फूलों का गन्ध उड़ा ना है, जाने कितनी मर्मकथाओं से मन भर जाता है। आम्र धराओं में कोयल गण-प्राण की अन्तपीड़ा को जगा दिया। चारों ओर स्निग्ध, नवीन, हरीतिमा