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________________ 462 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य आयेंगे, इसमें मुझे जरा भी संदेह नहीं है। पगली वसू, छिः आँसू ? अंजना के भाग्य पर इतना अविश्वास करती हो, बसन्त?" उपन्यास के पूर्वाद्ध में संवादों का क्रम काफी है, लेकिन उत्तरार्द्ध में समृद्ध वर्णनों की भरमार में संवाद-नद का प्रवाह कहीं क्षीण हो जाता है, तो कहीं विलुप्त-सा हो जाता है। अंजना के एक-एक उद्गार में मानों उसके हृदय की कोमलता, करुणा, प्रसन्नता और धैर्य का अपार तेज फूट निकलता है, जबकि पवनंजय के कथोपकथन से एक वीर अज्ञेय योद्धा एवं अभिमानी स्वामी का ममत्व टपक पड़ता है। अंजना की विचारधारा को कहीं-कही संवादों के माध्यम से लेखक ने प्रस्तुत किया है ....... हाँ, यह जो तोड़ फैंकने की बात कह रही हूँ-इसमें एक खतरा है। आत्मनाश नहीं होना चाहिए। कषाय नहीं जागना चाहिए। सर्वहारा होकर हम चल सकते हैं, पर आत्मह्रास होकर नहीं चला जा सकेगा। मूल को आघात नहीं पहुँचाना है। संघर्ष से तो परे जाना है, उसकी परम्परा को तो छेदना है। विषय को सम लाना है, फिर संघर्ष से विषम को विषमतर बनाये कैसे चलेगा? + + + लोकाचार को मुक्ति मार्ग के अनुकूल करना होगा, प्रगतिशील जीवन की मांगों के अनुरूप लोकाचार के मूल्यों को बदलते जाना होगा। निश्चय के सत्य को आचरण, व्यवहार के तथ्य में उतारना होगा। 'कर्म की सत्ता को अजय और अनिवार्य मानकर चलने को कह रही हो जीजी ? और यह भी कि मनुष्य होकर उसका कृतित्व कुछ नहीं है ...... ? फिर जड़ के ऊपर होकर चेतन की महानता का गुणगान क्यों है? फिर तो मृत्यु और ईश्वरत्व का आदर्श निरी मरीचिका है। हमारे भीतर मुक्ति का अनुरोध निरी क्षणिक छलना है ? + + + और यों आत्म निर्माण में से लोक मंगल का उदय होगा। तीर्थंकर के जन्म लेने में उस काल और उस क्षेत्र में प्राणी मात्र की कर्म वर्गतणाएँ काम करती है। निखिल लोक के सामूहिक पुण्योदय और अभ्युदय के योग से वह जन्म लेता है। उस काल के जीवन मात्र के शुभ परिणाम और शुभ कर्मों की पुंजीभूत व्यक्तिमत्ता होता है यह तीर्थंकर। एक ओर जहाँ अंजना के ऐसे वार्तालाप में गूढ, गंभीर चिंतन, मनन एवं हार्दिक बौद्धिकता है तो सरला, स्निग्ध वाणी के संवाद भी प्राप्त होते हैं। वैसे इसके प्रमाण कम हैं और मानवीय संवेदना तथा तात्त्विक विश्लेषणात्मक चिंतन प्रधान वाणी-वैभव 1. मुक्तिदूत-34, पृ. 12. 2. मुक्तिदूत-34, पृ. 87. 3. वही, पृ. 89, 90.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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