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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
है। कथावस्तु की भांति प्रमुख पात्रों के चरित्र-चित्रण के सन्दर्भ में भी हम विचार कर चुके हैं कि बरैया जी ने अपनी कृति में पात्रों का मानसिक सूक्ष्म विश्लेषण नहीं किया है, बल्कि नाट्यात्मक ढंग से प्रत्यक्ष रूप से ही प्रमुख पात्रों को प्रस्तुत किया है। चरित्र-चित्रण में आधुनिक शिल्प की अपेक्षा प्राचीन पद्धति का निर्वाह विशेष किया है, तो हम प्रमुख पात्रों के रूप-वर्णन में देख सकते हैं। अतएव, यहाँ हम उपन्यास के शिल्प विधान के प्रमुख अंग संवाद, भाषा-शैली के सम्बंध में विचार करेंगे। संवाद :
__'सुशीला' उपन्यास संवाद की दृष्टि से अत्यन्त सफल व रोचक उपन्यास कहा जायेगा। इसके संवाद छोटे-छोटे तथा पात्रों की विशेषताओं पर प्रकाश डालने वाले हैं। कहीं-कहीं तो दो पात्रों की बातचीत से कथा वस्तु को तो गति मिलती है, लेकिन अन्य चरित्रों पर भी प्रकाश पड़ता है। संवाद कथा-साहित्य का महत्वपूर्ण तत्त्व कहा जाता है। अन्तर्बाह्य दोनों रूप से इसकी आवश्यकता बनी रहती है। एक ओर से यह रचना को आकर्षक व जीवंत बना देते हैं, दूसरी
ओर चरित्र-चित्रण एवं कथावस्तु को आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं। कहीं-कहीं नाटक की तरह लम्बे-लम्बे स्वगत कथन भी आते हैं, जो लम्बे होने पर भी सोद्देश्य होने से खलते नहीं हैं। राजकुमारी सुशीला के पिता राजा विक्रम सिंह पुत्री के लिए भावि वर की चिंता करते हुए जयदेव के सम्बंध में दो पृष्ठ तक सोचते ही रहते हैं। स्वगत कथन का एक अंश देखिए-'मैं अनेक राजकुमार को देख चुका हूँ, परन्तु उनमें से किसी ने भी मुझे संतोष नहीं पहुँचाया है। उन सबमें बहुत थोड़े और विरल गुण पाये गये हैं। परन्तु जयदेव के गुणों की गिनती ही नहीं हो सकती। एक दया ही उसके हृदय में ऐसी शक्तिशालिनी और सुन्दर है कि अन्य गुणों की उसमें अपेक्षा ही नहीं है। वीर पुरुष का उन्नत हृदय ऐसी दया से शोभायमान रहना चाहिए, जिसका कि जयदेव ने मुझे उपदेश दिया था और जिसे वह स्वयं अहर्निशि धारण किये रहता है। उस रात जयदेव के वार्तालाप में तर्क बुद्धि की प्रखरता, काव्य रुचिरता और व्यवहार-कुशलता के साथ-साथ राजनीति की जैसी योग्यता प्रकट हुई थी, वैसी योग्यता वर्तमान में अन्य किसी राजकुमार में भी प्राप्त होगी, यह कल्पना मात्र है। जयदेव और भूपसिंह के निम्नोक्त संवाद से विक्रमसिंह की चारित्रिक विशेषता प्रकट होती है। 1. द्रष्टव्य-गोपालदास बरैया कृत-सुशीला उपन्यास, पृ. 164. 2. सुशीला-उपन्यास, पृ० 83.