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________________ विषय-प्रवेश 23 सुंदर है कि 'ज्ञान नेत्र है और आचार चरण है। पथ को देखा तो सही, पर उस ओर चरण बढ़ते ही नहीं तो देखने से क्या बनेगा? अभीसिप्त लक्ष्य तो दूर का दूर रहेगा, दृष्टा उसे आत्मसात् नहीं कर पायेगा। यथार्थ को जाना, आचरण में लिया तभी साध्य साधेगा।' शुद्ध चित्त एवं शुद्ध भावना से किये गये तप के द्वारा आत्मा के चरम विकास की स्थिति पर साधक पहुंच सकता है क्योंकि बाह्य तप भी आंतरिक शुद्धि के लिए उपकारी बनता है। ब्रह्मचर्य भी तप का ही आनुषंगिक सिद्धान्त है। इसी तत्व के द्वारा मनुष्य आत्मिक एवं शारीरिक शक्ति प्राप्त कर सकता है। इसीलिए तो कहा गया है कि भोग के समय एक क्षण भी योग याद आ जाये तो व्यक्ति आत्मिक विकास को प्राप्त कर सकता है। ब्रह्मचर्य के पालन से व्यक्ति, धर्म और मानवता के प्रति उन्मुख होकर आस्थावान बनता है और संयम सहाय करता है। ब्रह्मचर्य की सहाय के बिना किया गया तप भी अपूर्ण होता है, ऐसा जैन दर्शन का मानना समानता का सिद्धान्त : जैन धर्म जातिबद्ध या संस्थाबद्ध न होकर एक सामुदायिक चेतना है। जैन दर्शन ने किसी भी जाति, संप्रदाय, वर्ग या वर्ण के व्यक्ति को मुक्ति का अधिकारी घोषित किया हैं। बशर्ते कि व्यक्ति जैन सिद्धान्तों में श्रद्धा रख तीर्थंकर द्वारा बताये गये पथ पर चलने को उत्सुक हो। कर्मों की 'निर्जरा' कर आत्म-संयम के द्वारा क्रमशः व्यक्ति तीर्थंकर पद तक प्राप्त कर सकता है, ऐसा जैन दर्शन का विश्वास है। जैन दर्शन में धर्म-चेतना को संप्रदाय-चेतना से मुक्त माना गया है। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चरित्र की साधना से सामान्य मनुष्य भी पशुत्व से ऊंचा उठकर देवत्व प्राप्त कर सकता है। केवल जैन धर्म ने ही मनुष्य को तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकने की क्षमता वाला घोषित किया है। अन्य धर्मों में तप-भक्ति से प्रसन्न होकर देवता भौतिक सुख-संपत्ति और बहुत हुआ तो संतोष और शांति देता है, स्वयं का समकक्ष देवत्व नहीं, जबकि जैन धर्म में तो सच्ची निष्ठा और लगन से यह कहा जाता है कि मानव भी तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकता है और मोक्षमार्ग का वरण वह भी कर सकता जैन धर्म में पुरुष के साथ नारी को भी समानाधिकार देने की नीति सर्वप्रथम पाई जाती है। जबकि उस समय के अन्य धर्मों में नारी को गुलाम-सी i. आचार्य-नथमलमुनि-जैन दर्शन में आचारमीमांसा-प्राक्कथन, पृ० 1.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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