________________
438
आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
अष्टकों से होता है। 11 वाले खंड के बाद त्रिकल रखकर इसकी सम प्रवाहिकता की रक्षा की जाती है जैसे :
भूलूं कैसे उन्हें, प्रण अपने भी भूलूं, खोजूंगी में उन्हें, मैनों गिरि में भी डोलूं किया समर्पित हृदय, आज तन भी मैं सोंपू।
इस काव्य में रोला के अतिरिक्त 'मत्त सवैया' छन्द का भी उपयोग हुआ है। कवि ने प्रकृति वर्णन और मानसिक स्थिति के चित्रण के समय इस छन्द का अच्छा आयोजन किया है मत्त सवैया में 16, 16 मात्रिक खंड पदपादा कुलक के होते हैं। अन्त में डा नहीं रह सकता, बल्कि होता है। उदाहरण के लिए देखिए
कल-कल छल-छल सरिता के स्वर, संकेत शब्द थे बोल रहे,
आँखों में पहले छाये, धीरे-से-उर में लीन हुए।
'अंजना-पवनंजय' खंडकाव्य में कवि भंवरलाल ने तोटक छंद का प्रयोग किया है। तोटक छंद में 16-14 पर विश्राम के साथ 30 मात्राएं होती हैं। इसके चरण निर्माण चौपाई 'हाकलि' चरणों के मेल से होता है। अंत में ऽऽ, Is, सभी रहते हैं। उदाहरण के लिए
मन था या अनघड़ पत्थर था, लोहा था या वज्जर था। प्रेम-भिखारिन परम-सुंदरी, नारी को वहाँ न स्थल था।
आधुनिक हिन्दी जैन मुक्तक काव्यों में विविध छन्द प्राप्त होते हैं, तो देशी रागों पर आधारित पद भी मिलते हैं। मात्रिक व वार्णिक प्रकार के छंदों का जैन काव्यों में प्रयोग हुआ है-इनमें मात्रिक को प्रमुखता प्राप्त हुई है। हिन्दी काव्य साहित्य में मात्रा मेल छंदों का प्राधान्य है, जबकि संस्कृत साहित्य में वर्णिक छंदों को विशेष अपनाया गया है। हिन्दी जैन काव्यों में पूजा-स्नात्र भजनादि से सम्बंधित पदों का देशी रागों पर सृजन किया गया है, जिनका जैन समाज में पूजा-स्नाा के समय उपयोग किया जाता है।
स्व. भगवत जैन के 'सफल जन्म' काव्य की निम्नलिखित पंक्तियों में मात्रिक छंद 'विधाता' का प्रयोग हुआ है। इसमें 14-14 की यति के साथ 23 मात्राएं होती हैं
दो दिन का जीवन मेल, फिर खण्डहर सी नीरवता।
यश-अपयश बस दो ही, बाकी सारा सपना है। 1. डा. गौरीशंकर मिश्र-छन्दोदर्पण, पृ० 69. 2. वही, पृ० 52.