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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव 437 श्वेतांबरी समरथ्य, वाहन हंस बीना धरी। गिन किंकर ग्रहिरथ्थ, रसना में बसु मात तुम।॥4॥ इसी प्रकार एकाध जगह पर शार्दूलविक्रीडित छन्द का भी सफल प्रयोग किया है षषक कांड में प्रारंभ में प्रभु-वंदना का वर्णन इसी छन्द में है। त्रैयान्सनाथ प्रभु की स्तुति का नाराध छंद भी आकर्षक है, लेकिन ऐसे छन्दों की संख्या इनी-गिनी ही है-एक उदाहरण इस छन्द का द्रष्टव्य है बन्दों जी अरिहंत-संतवर के, बन्दो प्रभू जी सिद्ध जी। आचार्यो पद-वंदना करत हो, बन्दो उपाध्याय जी॥ बन्दो साधु सप्रेम क्षेम चहिके, बन्दो उबे साध्वी जी। ये पंच परमेश क्लेश हरहू, चिते सदा ही रिझी॥ इस प्रकार 'वीरायण' महाकाव्य में दोहा-चौपाई की प्रमुखता के साथ कवि ने यत्र-तत्र अन्य छन्दों का भी प्रयोग किया है। _ 'विराग' खंडकाव्य में छन्द के भीतर लय-गति का प्रच्छन्न रूप से निर्वाह हुआ है। 'सारस' छंद का इसमें अधिक प्रयोग हुआ है। 12, 12 की यति वाले 24 मात्राओं का यह छंद होता है। इस छंद में गति व प्रवाह का निर्वाह अधिक होता है। शान्त रस के लिए यह छन्द विशेष उपयुक्त होता है। 'विराग' काव्य के कवि को सायास छन्द योजना नहीं करनी पड़ी है, बल्कि भावों के प्रवाह में छन्द बनते गये हैं। एकाध स्थान पर छन्द भंग भी हुआ है, लेकिन प्रवाह के कारण इतना सकता नहीं है। इस सम्बंध में डा० नेमिचन्द्र जी लिखते हैं-'विराग' की शैली रोचक, तर्कयुक्त और ओजपूर्ण है। भाव छन्दों में बांधे नहीं गये हैं, अपितु भावों के प्रवाह में छन्द बनते गये हैं। अतः कविता में गत्यावरोध नहीं है। हाँ, एकाध स्थल पर छन्दों का भंग है, पर प्रवाह में वह खटकता नहीं है। भाषा सरल, सुबोध और भावानुकूल है।'' कवि ने छंद और यति भंग को बचाने के लिए ही लिंग दोष या शब्दों को तोड़-मरोड़ दिया है, लेकिन यथाशक्ति छन्द की पूर्णता का निर्वाह किया है। बलचन्द्र जैन ने अपने 'राजुल' खंड काव्य में रोला व सद्य सवैया दोनों छन्दों का कुशलता से प्रयोग किया है। कवि ने छंद में यथा-साध्य यति भंग के दोष से बचने की कोशिश की है। 'रोला' में सामान्यतया 11, 13 पर विश्राम के साथ 24 मात्राएं होती हैं। अंत में डा के अतिरिक्त और 15, 11 सब रहते हैं और 8, 8, 8 पर भी विराम देखा जाता है। रोला के चरण का निर्माण तीन 1. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री-हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन-भाग-2, पृ॰ 33. 2. डा. गौरीशंकर मिश्र-छन्दोदर्पण-पृष्ठ 19.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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