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आधुनिक हिन्दी - जैन- काव्य का कला -
- सौष्ठव
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तुक के विशिष्ट क्रमायोजन (Arrangement of rhym) द्वारा तीन या चार चरण वाले अनुबंध या अनुच्छेद (Stanza) का निर्माण भी दिया गया है। इसमें मात्राओं की समानता की अपेक्षा तुकान्त का अधिक ध्यान रखा गया है-यथा
घर घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावे, ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना, मनुज जन्म-फल सब पावें ।
गणपति गोयलीय की 'छलना' कविता में अष्ठपदी शरण अन्त्यानुप्रास का उदाहरण उपलब्ध होता है। उनकी कविताओं में प्राय: छन्द के शिथिल रहते हैं तथापि अन्त्यानुप्रास होने से उनमें लय का क्रम बना रहता है। गेयता का गुण विद्यमान होने से छंद की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती । श्री हुकुमचन्द भारिल्ल के पूजा - स्नात्र सम्बंधी स्तोत्रों व स्तवनों में, साधु-साध्वी द्वारा दैनिक धर्मचर्या के लिए प्रणित स्तवनों को छन्द के बंधन की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती, वैसे उनमें भाषा का लाघव, माधुर्य, लय-ताल, देशी राग या ढालों का आकलन होने से स्वत: ही सुंदर बन पड़ते हैं। ऐसे स्तवनों में छन्द की उपस्थिति हो या न हो, लय व प्रवाह ही प्रमुख अनिवार्यता बनी रहती है। भक्ति की भावना के साथ राग का माधुर्य सम्मिश्रित रहता है । 'कुसुमांजली' एवं 'पुष्पांजली' के पदों में यही बात देखी जा सकती है। मुनि रूपचन्द जी की छोटी-छोटी स्फुट रचनाओं में छंदहीनता होने पर भी भाषा के प्रवाह के साथ भावों की व्यंग्यात्मक सशक्त अभिव्यक्ति से ही आकर्षकता आ जाती है। इस संदर्भ में श्रीयुत अगरचन्द नाहटा जी का विचार है कि-राग-रागनियों का जैन विद्वानों को अच्छा ज्ञान था, यह तो उनके सैकड़ों पद, स्तवन, सझाय आदि रचनाओं से स्पष्ट है, पर उनकी सबसे बड़ी एवं उल्लेखनीय संगीत की सेवा तो यह है कि उन्होंने लोक-संगीत को शताब्दियों तक बड़े अच्छे रूप में जीवित रखा और प्रचारित किया। हजारों लोकगीतों को देशियों में उन्होंने अपनी ढालें, रास, चौपाई, आदि ग्रन्थ रचे हैं और अपनी उन रचनाओं के प्रारंभ में जिस लोकगीत का आदि पद एवं कुछ पंक्तियाँ उन्होंने उद्धृत कर दी हैं । '
परमेष्ठिदास की 'महावीर संदेश' कविता में चतुष्पद छंद का उदाहरण उपलब्ध है, जिसमें 16 और 14 पर विश्राम रहता है तथा अन्त में नहीं रह सकते। मत्त सवैया की दो मात्राओं को निकाल कर इसका आविष्कार किया
1. श्रीयुत् अगरचन्द नाहटा - संगीत मासिक पत्रिका - पृ० 49, मार्च 79.