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भीगी नहीं जरा भी देखो,
सानुभूति की चोली है।
पाप
-धूलि नहीं उड़ी, कहो फिर,
कैसे होली होली है। ( अनेकांत - पर्व - 3, क्रिया 4 ) . 'प्रेमी' की 'सद्धर्म-संदेश' का रूपक भी द्रष्टव्य है'मंदाकिनी दया की जिसने यहाँ बहाई,
हिंसा - कठोरता की कीचड़ भी धो बहाई। समता- - सुमित्रता का ऐसा अमृत पिलाया,
द्वेषादि - रोग भागे, मद का पता न पाया। गणपति गोयल की 'छलना' में उपमा का रूप देखिएहो तब स्वर्ग-ज्योति-आई, मुझे देखते ही मुस्काई | वीणा में सजीवारोपण द्वारा कवि मार्मिक भाव जगाते हैंअहे वीणा के टूटे तार।
तू अनन्त में लीन हो रहा और सो रहा मौन; रागिनियाँ सुनाती तो हैं, पर तुझे जगाये कौन ?
आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
थका संसार पुकार - पुकार, अहे वीणा के टूटे तार ! ' शब्दालंकार में वर्णन प्रास - अनुप्रास एवं अन्त्यानुप्रास का प्रभाव विशेष है- अनुप्रास का प्रवाह देखिए
घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावें,
ज्ञान चरित उन्नत कर अपना, मनुज जन्म सफल सब पायें।
ऐसे ही - सरिता, सरवर, सागर में, गिरि-गह्वर में, नगर - नगर में, डगर-डगर में वसुधा भर में, जल-थल में अनंत अंबर में
एक बार हो उठे पुनः माँ! तेरा ही जयघोष । '
इन दो पंक्ति में ही कवि ने वर्णानुप्रास, अंत्यानुप्रास एवं वर्णों के द्वित्वों से माधुर्य भर दिया है।
उदयाचल पर लाल-सूर्य की लाली छाई, उषा सुंदरी अहो, जगाने तुमको आई ।
अन्त्यानुप्रास का एक और उदाहरण
सोचा ज्यों न चलूं उस पार, बैठा तर पर ले पतवार ।