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________________ 430 भीगी नहीं जरा भी देखो, सानुभूति की चोली है। पाप -धूलि नहीं उड़ी, कहो फिर, कैसे होली होली है। ( अनेकांत - पर्व - 3, क्रिया 4 ) . 'प्रेमी' की 'सद्धर्म-संदेश' का रूपक भी द्रष्टव्य है'मंदाकिनी दया की जिसने यहाँ बहाई, हिंसा - कठोरता की कीचड़ भी धो बहाई। समता- - सुमित्रता का ऐसा अमृत पिलाया, द्वेषादि - रोग भागे, मद का पता न पाया। गणपति गोयल की 'छलना' में उपमा का रूप देखिएहो तब स्वर्ग-ज्योति-आई, मुझे देखते ही मुस्काई | वीणा में सजीवारोपण द्वारा कवि मार्मिक भाव जगाते हैंअहे वीणा के टूटे तार। तू अनन्त में लीन हो रहा और सो रहा मौन; रागिनियाँ सुनाती तो हैं, पर तुझे जगाये कौन ? आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य थका संसार पुकार - पुकार, अहे वीणा के टूटे तार ! ' शब्दालंकार में वर्णन प्रास - अनुप्रास एवं अन्त्यानुप्रास का प्रभाव विशेष है- अनुप्रास का प्रवाह देखिए घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावें, ज्ञान चरित उन्नत कर अपना, मनुज जन्म सफल सब पायें। ऐसे ही - सरिता, सरवर, सागर में, गिरि-गह्वर में, नगर - नगर में, डगर-डगर में वसुधा भर में, जल-थल में अनंत अंबर में एक बार हो उठे पुनः माँ! तेरा ही जयघोष । ' इन दो पंक्ति में ही कवि ने वर्णानुप्रास, अंत्यानुप्रास एवं वर्णों के द्वित्वों से माधुर्य भर दिया है। उदयाचल पर लाल-सूर्य की लाली छाई, उषा सुंदरी अहो, जगाने तुमको आई । अन्त्यानुप्रास का एक और उदाहरण सोचा ज्यों न चलूं उस पार, बैठा तर पर ले पतवार ।
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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