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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव 429 अंत्यानुप्रास का महत्व लक्षित है, कवि ने यत्र-तत्र इसका प्रयोग कर भाषा में मधुरता भरने का प्रयत्न किया है जैसे मुनि पद धारण कर लिया, पाया पद सर्वार्थ। सिद्ध-सिद्ध कर कार्य वह जगत किया किरतार्थ॥ विधि की वक्रता सुंदर विरोधाभास अलंकार द्वारा व्यक्त की गई हैकर्मों का कैसा चक्र अज़ब, यों अकल-गजब के बीच में है। कस्तूरी मृग के पेट में है, और कमल घृणाकर कीच में। खंड काव्य के उपरान्त हिन्दी जैन मुक्तक रचनाओं में भी अलंकारों का विवेचन काम्य है। मुक्तक रचनाएं प्रायः भाव परक हैं। अतः इनमें रूपक एवं उपमा अलंकारों का प्राधान्य रहा है। 'सफल जन्म' में पाप-पुन्य की तुलना मृत्यु एवं माता के साथ की गई है दो पुण्य-पाप रेखाएँ, दोनों ही जग की दासी, है एक मृत्यु-सील धातक, दूसरी सुहृद माता-सी। पराक्रमी मनुष्य को 'कल' से शिक्षा लेकर 'आज' को सार्थक बनाकर 'विश्व-सदन' में अपना जन्म सफल करना चाहिए वह पराक्रमी मानव है, जो 'कल' को आज बनाकर, क्षणभंगुर विश्व-सदन में, करता निज जन्म सफल है। 'नर-कंकाल' में व्यंग्यात्मक भाव कैसे रूपक व्यक्त हुए हैं तिरस्कार-भोजन, प्रहार-उपहार, भूमि जिसकी शय्या, धनाधिपों के दया-सलिल में, खेता जो जीवन-नैया॥ 'युगवीर' जी की 'होली होली है' पूरे सांगरूपक का उदाहरण हैज्ञान-गुलाल पास नहीं, श्रद्धा, समता-रंग न होली है। नहीं प्रेम-पिचकारी कर में, केसर-शांति न धोली है। स्याद्वाद की सुमृदंग बजे नहीं, . नहीं मधुर-रस बोली है। ध्यान-अग्नि प्रज्वलित हुई नहीं, कर्मेन्धन न जलाया है। असद्भाव का धुंआ उड़ा नहीं, सिद्ध स्वरूप न पाया है।
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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