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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
सुमनों ने मोद बताया, सम्पूर्ण रूप से खिलकर। 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति से काव्य में माधुर्य भर गया है।
रूपक अलंकार के द्वारा कवि नियति-नटी की महत्ता प्रदर्शित करते हैं-उसके द्वारा चलाये गये रथ में सभी को बैठना पड़ता है
था इष्ट न उनको बाधक, बनना कुमार के पथ में। अतएव विवश हो चलते, थे नियति-नटी के रथ में। 2. पृ. 33.
तुमसे ही चले युगों तक, शुभ नाम जगत में कुल का। दुःख नद के पार पहुँचने,
निर्माण करो तुम पुल का। 2, पृ॰ 32. बालचन्द्र जैन के 'राजुल' काव्य में कवि का प्रिय अलंकार अनुप्रास रहा है। अंत्यानुप्रास का प्रवाह द्रष्टव्य है
भूलूं कैसे उन्हें, प्राण अपने भी भलं, खोजूंगी में उन्हें, वनो-गिरि में भी डोलं, किया समर्पित हृदय आज तन भी मैं सौंपूं;
रहे कहीं भी किन्तु सदा वे मेरे स्वामी,
में उनका अनुकरण करूं बन पथ अनुगामी। इसी प्रकार-अब न रही हैं सुखद वृत्तियाँ, शेष बची हैं मधुर स्मृतियाँ। भावों की मार्मिकता निम्नलिखित अन्त्यानुप्रास अलंकार युक्त पंक्ति में व्यक्त हो पाती है
नारी ऐसी क्या हीन हुई!
तन की कोमलता ही लेकर नर के सम्मुख दीन हुई! प्रास-अनुप्रास की छटा का सौंदर्य देखिए
कल-कल, छल-छल सरिता के स्वर, संकेत शब्द थे बोल रहे।
भंवरलाल सेठी के 'अंजना पवनंजय' खंड काव्य में भी कवि को शब्दालंकार ही प्रिय है। जैन काव्य में अनुप्रास का बाहुल्य पाया जाता है।
बरसों बीत गये दुःखिया को, पाये नहीं घी के दर्शन। या- 'छाया जग में जय-जयकार'
भगवत जैन के 'सत्य अहिंसा का खून' काव्य में भी वर्णानुप्रास का