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आधुनिक हिन्दी - जैन- काव्य का कला-सौष्ठव
में प्रस्तुत करने का है। अतः अलंकार तो कवि ने भाव - प्रवाह में स्वतः प्रवाहित होते हुए चले आए हैं।
महाकाव्य के अनन्तर आधुनिक हिन्दी जैन खण्ड काव्यों में अलंकारों के प्रयोग पर संक्षेप में दृष्टिपात करना समीचीन होगा।
'विराग' में कुमार वर्धमान के वैराग जन्य शान्त अनुभूतियों के तीव्र संवेग - आवेग के साथ माता त्रिशला के हृदय की अदम्य कामनाएँ एवं पुत्र - प्रेम से तड़पती भावनाएँ कलात्मक रूप से चित्रित हैं। कवि ने उन भावों को सुंदर अलंकारों तथा मार्मिक शैली से अभिव्यक्ति भी प्रदान की है। वैसे अलंकारों की कृत्रिम साज-सज्जा कवि का मुख्य प्रयोजन नहीं रखा है, लेकिन प्रकृति के वर्णन में या कुमार के सौन्दर्य-वर्णन में वे स्वयं छा गये हैं। काव्य के प्रारंभ में ही प्रात:कालीन प्रकृति की शोभा - रमणीयता का वर्णन करते समय सुंदर अलंकार चमक उठे हैं। पनिहारिनें प्रभात बेला पनघट पर जाकर पानी भरती हैं, तब उनकी शोभा देखते ही बनती है- उत्प्रेक्षा का रम्य प्रयोग भी द्रष्टव्य है
अवगुण्ठन तब हट जाने, ये स्वर्ण हार यों चमके,
ज्यों पावस ऋतु के श्यामल, मेघों में विद्युत दमके ।
आगे बढ़ भानु-किरण भी, उनका मुख- पंकज छूती, मानों सुरपुर से आयी, बन किसी देव की दूती ।
तब महिषी देख रही थी, मोहक मुख मंजु मुकुर में, पीछे से देख छटा से, नृप मुदित हुए निज उर में । शब्दालंकार का उदाहरण देखिए
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तब तक तव कीर्ति रहेगी, जब तक रवि चन्द्र जगत है। वह जग का मत कल होगा,
जो आज तुम्हारा मन है । पृ० 72.
'त' और 'क' की पुनरूक्ति से भाषा में गति का प्रवाह आ गया है
विटपों ने सादर श्रद्धा
से शीश झुकाया हिलकर